खैरुन की माँ
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पिछले पोस्ट में बिमला दीदी के बारे में आपलोगों ने पढ़ा होगा तो, एक ऐसा ही दुसरा संस्मरण एक ऐसी महिला के लिए – जो हम भाई बहनों की परवरिश में मां का साथ निभायी । आज कारपोरेट जिंदगी से फुरसत के कुछ लम्हों में आज मिलवाता हूँ – मेरी खाला – “खैरुन की माँ” से ।
अभी शाम को माँ का फोन आया था । वह “खैरुन की माँ” के यहाँ से बोल रही थी कि और बता रही थी “खैरुन की माँ” मुझे याद करती है । वह शिकायत कर रही माँ को – कि मैं अबकी बार जब घर गया था तो उससे मिलने क्यों नहीं गया । फिर माँ ने अपना मोबाईल खैरुन की माँ के कानों से लगा दिया । मैने उससे बात कि और बताया कि – मैं उसे बराबर याद करता हूँ और कुछ दिन पहले तो और भी ज्यादा । वह कहने लगी – “अल्लाह बेटा …. ” और नेटवर्क कट गया और मैं…. । मैनें फोन लगाने की कोशिश की पर नहीं लगा । दरअसल जिस दिन मैं बिमला दीदी के बारे में लिख रहा था तो खैरुन की माँ की भी याद आ रही थी ।
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उन दिनों मैं शायद चौथी कक्षा में पढ़ता होऊँगा । पर पुरी तरह से याद है वह रविवार का दिन । “माँजी-माँजी कुछ भीख देना” – हर रविवार की तरह उसदिन भी भिखारी एक-एक कर आते और चले जाते । लंगरू और कालु जैसे सारे भिखारी हमारे दरवाजे पर नियमित आते थे । हमारे यहाँ भिखारियों को ज्यादतर समय चावल देते है । एक भिखारिन भी हमेशा आती थी । उस दिन उस भिखारिन के साथ एक दूसरी साँवली – दुबली पतली भिखारिन आ गयी थी । उसकी उम्र होगी कोई 35 साल । चुँकि उस दिन दो भिखारिन थी – माँ प्लेट में दुगुना चावल लेकर निकली । और उस नये भिखारिन के आँचल में भीख देने जब वह सामने गयी तो माँ का मन नहीं माना कह ही दिया । वह बहुत गरीब लग रही थी पर वेष-भुषा से भिखारी नहीं ।
“इतना अच्छा देह है, कुछ काम-वाम क्यों नहीं खोजती ?” – माँ पुछ ली ।
वह चुप रही । माँ ने फिर दूहराया ।
“कौन देगा काम मुझे” – वह भिखारिन बोल पड़ी
“कुछ भी कर सकती हो – काम की कमी रहती है क्या ? ” – माँ कहने लगी – “कब से भीख माँग रही है ?”
“आज ही पहली बार निकली हूँ । ” – वह कह पड़ी ।
“हमारे यहाँ काम करोगी ? ” – माँ पुछ बैठी ।
उसने सिर हिलायी । उसका इतना हाँ के इशारे में सिर हिलाना था उसे भीख नहीं मिली । और हमेशा वाली भिखारिन को उस दिन इसके हिस्से का भी चावल मिल गया ।
माँ ने उस महिला को वहीं रोक लिया । उसके पोटली में पिछले कई घरों के माँगे चावल पड़े थे ।
उस महिला के गाल पिचके से थे । साड़ी -चोली और कपड़ा से पुरा माथा ढँका – वह मुसलमान थी । पुछने से पता चला कि दो बेटे हैं उसके । बड़ा बैटा – खैरुन दिल्ली में काम करता है – घर से उसका कोई लेना – देना नहीं । एक बेटा है तीन साल का । और एक बेटी है – 10 साल की कलुआनी । पति भी है उसका – पर दो महीने से लकुआ के कारण बिस्तर पर पड़ा है । घर में खाने के कुछ नहीं है । कभी मजदूरी नहीं की इसलिए उस दिन आ गयी भीख माँगने आ गयी उसके गाँव वाली के साथ । माँ का अनुमान गलत न था ।
माँ ने उसे रोक तो लिया था पर काम क्या करने को दे यह सोचकर मुश्किल में पड़ गयी । उसे कह तो दी की काम की कमी नहीं रहती है – पर अपने घर में इतनी जल्दी क्या काम दे मुश्किल में पड़ गयी । उस समय कपड़े धोना या बरतन माँजने या पोछा लगाने वाले काम का तो प्रश्न ही नहीं उठता था । एक काम निकल पड़ा – भुटिया सिलाई करना । भुटिया मतलब – हमारे यहाँ पुराने सुती साड़ी-धोती और चादर को कई तह बनाकर फिर रंगीन धागों से सीकर एक कंबल सा बनाया जाता है । यह काम हमारे यहाँ महिलाँए जानती है । माँ को तो आज भी घर में फाइलों से समय मिले तो भुटिया सिलाई करने बैठ जाती है ।
खैरुन की माँ को भुटिया सिलाई का काम दिया गया । उसकी मेहनताना तय हूई । वो पुरे दिन बरामदे पर बैठकर काम की । उसके खाने के लिए अलग एल्युमिनियम की थाली । उसकी पहनी साड़ी की हालत देखकर जाते समय माँ एक पुरानी साड़ी उसे दे दी और पोटली बनाकर दे दी घर में पकाने के लिए चावल-दाल ।
माँ को उसका काम पसंद आया । काम करते समय उसने कह दिया कि वह माँ को उस दिन से दीदी कहकर पुकारेगी । उसकी साफगोई और सीधापन माँ को छु गई – और मेरी माँ की सबसे बड़ी कमजोरी और जीने का आधार भी यही है । माँ भी क्या करती बेचारी – उसने भी जो बुला लिया था न उस दिन भिखारिन को घर में । खैरुन की माँ ने भुटिया में
धागे क्या सीये – माँ के दिल में एकाध धागे जड़ दिए ।
अगले दिन उसे फिर बुलाया गया और वह करीब 4-5 बर्षों तक काम करती रही । जो भी घर का काम उसे कहा जाता लगन से करती रही । मेरे शैशव में अगर बिमला दीदी थी तो मेरे अनुज के लिए वह फुआ जैसी । गरीब होने से क्या हुआ उसकी सफाई पसंद के कारण वह सिर्फ रसोई के काम के सिवा काफी काम संभाल लेती थी ।
फिर बाद में खैरुन की माँ अब कम आती थी – सुनने में आया कि वह दुसरी महिलाओं के साथ किसी खान साहब के घर जाती है । वे लोग हमलोगों से ज्यादा मजुरी देते थे । हमें भी शिकायत नहीं रही – उसे दौ पैसे कहीं से ज्यादा मिल रहे थे । हाँ एक बात थी – कभी काम के लिए माँ उसे अगर कभी बुला लेती तो कभी ना नहीं करती ।
अपने बुते पर काफी कोशिशों के बाद वह जीत न पायी किस्मत से अपनी लड़ाई । उसके आँसु वर्षों पहले शायद भिखारी के चोले के अंदर ही दब गये थे । इसी बीच हमने देखा – उसे विधवा होते हूए । लकुआ से कमजोर उसका सौहर चल बसा । अभी वह कुछ संभल ही पाती की एक दिन सुनने में आया कि उसके छोटे बेटे के पैर में चोट लगा है । वह उसी भिखारन से खबर दिलवा भेजी । माँ ने देखने के लिए अमिय मामा को भेजा । सुनने मे आया उसके छोटे बेटे का बदन टेढ़ा हो रहा था फिर देखते-देखते 24 घंटे के अंदर टेटनस से उसका बेटा चल बसा ।
खैरुन माँ का वह पहला संतान है ना – सो उसे वर्षों से खैरुन की माँ के नाम से ही जानता आया हूँ । वह भुले भटके ही घर आता था वह बस नाम का रह गया – मेरी संस्मरण में नाम पाने के लिए ।
अब घर में बच रह गयी खैरुन की माँ और बेटी कलुआनी । इधर कलुआनी बड़ी हो गयी थी । उसकी शादी अकेली माँ के लिए सिर-दर्द था । उपर से झमेला दहेज का । देखने में कलुआनी बिलकुल काली, दुबली-पतली । और स्वभाव में कलुआनी स्वभाव से अपनी माँ से नहीं मिलती थी । वैसे खैरुन की माँ ने मेरी माँ से पहले ही कह दिया था कलुआनी की शादी के समय दान (दहेज) की तीन चीजों में कम से कम एक देकर मदद करे । दान की ये तीन चीजें उस स्तर के सब बेटी वालों को देना पड़ता है – साईकिल, घड़ी और बाजा मतलब रेडियो ।
कलुआनी जैसी भी थी – अपनी किस्मत लेकर जन्मी होगी । कितनी ही बार हमने सुनी कलुआनी के शादी के रिश्ते बनते और बिगड़ते । और हमारी आदत सी पड़ गयी थी – यह सब सुनते सुनते । पर एक दिन खैरुन की माँ खुशी-खुशी हमारे घर आयी और बताया माँ को कि कलुआनी की शादी पक्की हो गयी है । बुधवार को शादी तय हूई है । लड़का अपना रिक्सा चलाता है ।
पर उसकी खुशी के पीछे चिंता की रेखाएँ आज स्पष्ट थी । शादी-ब्याह में जब माँ को पिताजी का भी दायित्व, बेबस होकर निभाना पड़ता है तो – वह उसके लिए शायद काफी कष्टप्रद होता है । वह बता रही थी उस दिन जब वह दहेज के तीन समान के लिए कैसे सबके यहाँ सुबह से घुम रही थी । उसने कहा कि अली साहब घड़ी और खान साहब बाजा देना चाहते है । अब सबसे ज्यादा दाम वाला समान सिर्फ साईकिल बच गया है उसे आप दे देती तो….. कहते कहते वो मायूस हो गयी । शाम का समय था – बरामदे पर माँ ने उसे चाय-पिलाई और उससे पुछा कि साईकिल के लिए रुपये दे दूँ या साईकिल बनवा दूँ । उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि माँ यूँ हाँ कर देगी । उसने कहा साईकिल ही बनवा दीजिए । चुँकि उसके घर में पहले से साईकिल खरीदकर रखने का मतलब चोरी का डर था इसलिए , मुझे बुलाकर माँ समझा दी की मंगलवार को नई साईकिल बनवाकर बुधवार को शादी के दिन ही उसके घर में सुबह दे आऊँ । खैरुन की माँ आश्वस्त होकर चली गयी ।
मैनें पता किया उस समय 1500 रुपये में अच्छी हीरो रायल साईकिल बन जाएगी । मंगलवार के रोज मै दोपहर को साईकिल की दुकान पैदल पहूँचा – क्योंकि आते समय नयी साईकिल में आना था ना । बनवाने से पहले वहाँ जब कीमत जोड़ा जा रहा था दुकानदार ने बताया – पीछे का कैरियर कैसा चाहिए , सीट कवर, और दुसरे समान कैसे चाहिए । मैनें कहा – अच्छा वाला । फिर मैनें उसे समझाने के लिए कहा कि साईकिल दान में देना है । दुकान का स्टाफ हँसने लगा । वह कहने लगा – दान के साईकिल के लिए इतनी कीमत का समान क्यों लगा रहे है । उसने बताया कि लोग दान मे देने के लिए तो सस्ती वाली साईकिल बिना कैरियर, सीट कवर के ले जाते है । जिसे दान मिलेगा वह अपना कैरियर लगाएगा । उस समय इस बिन माँगी राय सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया था । मेरा मन किया की बहूत सारा भाषण दे दूँ उसको – पर कुछ न कहा । मैने वहीं बैठकर साईकिल बनवाले लगा । टायर लगवाया नाईलन का, साईकिल की मैचिंग का गद्दे वाला सीट कवर और पहिये के अंदर का रंगीन फुल । जब साईकिल तैयार हो गयी तो मैनें उसके हैंडिल में झालर लगवाया । और सामने हैंडिल पर प्लास्टिक के गुलाब फुल । मेरी मन माफ़िक साईकिल तैयार हो गयी थी । नयी साईकिल की धंटी टनाटन बजती थी ।
बुधवार के दिन शादी रात को होनी थी । माँ मुझे दोपहर से ही पहले भेज दी – उसके घर सुबह साईकिल पहूँच जाएगी तो उसे तस्ल्ली हो जाएगी और कुछ अगर काम-वाम की जरूरत पड़े तो सहायता हो जाएगी ।
मैं नयी साईकिल उठाकर खाला के घर पहूँच गया । शादी का शामियाना देखकर मुझे आश्चर्य हुआ । एक छोटा तिरपाल टंगा था बस । आँगन की लिपाई सुबह में हुई होगी पर कहीं पानी पर फिसलते हुए पदचिन्ह तो कहीं पड़े हैं मुढ़ी के दाने । और कहीं लोट रहा है करीब आठ-दस महीने का नंगा बच्चा । उस गाँव में बुरके का प्रचलन नहीं था पर महिलाँए आँगन में सिर ढँककर काम कर रही थी । मैं नई साईकिल को सही जगह में रखने की मैं सोच ही रहा था । गाँव के नंग-धरंग बच्चे मेरे साईकिल के चारों ओर खड़े थे । एक बच्चा हैंडिल का झालर छुता तो दुसरा बच्चा उसे दुबारा छुते हूए पहले को फटकार लगाता ।
खैरुन की मां मेरे लिए क्या करे ना करे – परेशान सी हो गयी । क्या खाने को दे मुझे उसे समझ में नहीं आ रहा था । उसने चुनरी के कोने से गाँठ खोलकर पाँच रुपये का नोट निकालकर एक गाँव के बड़े लड़के को दी कि – जाकर मिठाई और नमकीन ले आए ।
लड़का थोड़ी देर के बाद लौटा – अब मेरे लिए स्टील का प्लेट तो खाला के घर का था यह तो पता नही पर उसके पास अभी चम्मच न था । बगलवाली से चम्मच माँग कर ले आयी । एक सस्ती लकड़ी का मेज और एक लकड़ी की कुर्सी भी मंगवा ली । मिठाई में छेना कम पर मैदा अधिक था – पर मुझे वह अच्छी लगी थी । उस नमकीन का स्वाद आजतक अंकल चिप्स में भी नहीं मिला । लेकिन उस नमकीन का नमक खाकर पता नहीं मुझे उसके प्रति कृतज्ञता भार बोध होने लगा । सोचा शादी का घर है कुछ करूँ – और कलुआनी बहन भी तो थी ।
मैं आँगन से बाहर खड़ा-खड़ा सब देख रहा था । वहाँ व्यवस्था में लगे किशोर लड़को से बात करने के बाद लगा कि रंगीन कागज के झालर काटने बाकी हैं । और क्या था – मैनें खैरुन की माँ से मांग ली रंगीन कागज । पर कैंची का पता नहीं – बगल वाले के यहाँ से एक मँगवायी तो पुरी तरह से भोथी । एक तो सस्ती वाली कागज फिर पानी काटने वाले उस कैंची से महीन झालर की डियाजन भी नहीं बनती थी । एकाध डिजाईन बनाने के बाद एक बेहतर कैंची आयी और हमनें फिर सारे झालर बनाये । लड़के कहीं से आटे की लेई बनाकर लाए और जहाँ- जहाँ बन पड़ा चिपकाते गये । अब लग रहा था – उस घर में शादी होने वाली है ।
करीब तीन बज गये थे और मुझे पैदल घर आना था । दोपहर को वहाँ भात खाने की व्यवस्था की न कोई संभावना थी और न ही कोई इच्छा भी हो रही थी । खैरुन की माँ को साईकिल की चाभी ठीक से रखने के लिए कहा और मैं वापस घर आ गया । शादी के लिए रात में रहना हमलोगों के लिए संभव न था और शायद रहने से खैरुन की माँ को हमलोगों के खाने के लिए कुछ अलग व्यवस्था करनी पड़ती ।
घर आकर खाना खाया और रात में माँ को सब कहानी सुनाया । उसे खुशी हूई ।
शादी के कई दिन के बाद खैरुन की माँ फिर से काम पर आने लगी । अब उसकी उम्र काम करने सी नहीं थी – माँ कहती की खाना खाकर वह बस थोड़ा चावल साफ कर दे वही काफी है । पर पता नहीं उसकी आदत वही रही । खोज-खोजकर काम निकाल लेती ।
एक दिन खैरुन की माँ बात कम रही थी । पुछा मां नें – उसकी तबीयत ठीक तो है , कलुआनी ठीक तो है । उसने कहा सब ठीक है । पर वह रोक न सकी खुद को । आँखों में आँसु भरकर बोल दी – साईकिल चोरी हो गयी है कलुआनी के ससुराल में । साईकिल चोरी – सुनकर मेरा तो हाथ-पैर जम गया । उसने बताया कुछ दिन पहले रेडियो – घड़ी चोरी हो गयी थी और आज रात साईकिल । हमलोगों ने पुछा कैसे । वह कह रही थी – उसका जमाई बता रहा था रात में कैसे हूई है पता नहीं ।
अब मुझे साईकिल की दुकान वाले आदमी की याद आ रही थी – “दान के साईकिल के लिए इतनी कीमत का समान क्यों लगा रहे है …… दान मे देने के लिए तो सस्ती वाली साईकिल बिना कैरियर, सीट कवर के ले जाते है । ”
माँ कलुआनी के ससुराल वालों को एकाध भला-बुरा सुनाकर उसे ढाँढस बँधायी । उसके हताश चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था टुट सी गयी लता माँ के सुखे टहनी से सहारा माँग रही हो ।
साईकिल चली गयी – पर खैरुन की माँ हमेशा की तरह उसी तरह रही । शायद ईश्वर उसकी सहनशीलता को देखकर ही उसे “खैरुन की माँ” बनाकर यहाँ भेजी । घर जाने से कोशिश करता हूँ एक बार मौका निकालकर उसे देख आऊँ । मुझे अचानक अपने घर पर देखकर खुशी से हमेशा उसके मुँह से निकलती है – “अल्लाह रे बेटा । कसे करे ओसलो ( कैसे आना हुआ ) ” ।
वह मुसलमान या “किस्मत की भिखारी” नहीं – मेरी खाला है।
Khairoon ki Ma. If I’m not wrong I had read about her long long back.
Anyway I will read it again.
SEEDHI SARAL KAHANI…PADHKAR ACCHA LAGA..THX FR SHARING
मनुष्य के हृदय में कब किसके लिए स्नेह उमड़ पड़े कहा नहीं जा सकता । पढ़कर अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती
पढ कर न जाने क्यों मुझे अपने बचपन की बहुत सारी बातें याद आ गईं, खास कर उन लोगों कि जो इसी तरह हमारे घर आया करते थे — शास्त्री जे सी फिलिप
आज का विचार: जिस देश में नायको के लिये उपयुक्त आदर खलनायकों को दिया जाता है,
अंत में उस देश का राज एवं नियंत्रण भी खलनायक ही करेंगे !!
एक और अद्भभुत संस्मरण। तुम्हारे मन की सहज मानवीय भावनायें ऐसे ही बनीं रहें यही कामना है। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर! 🙂
Again another touchy post.
Yes, I recalled where I read about her now. You had commented about her in my story “Karwa Sach”
:).
God bless you.
And what to say about your Ma…………. I read so much about her in your page. She is really a divine lady.
पारूल जी,
हाँ सीधी-साधे लोगों पर सीधी-साधी कहानी । और मुझे थैक्स काहे का तो आपको थैंक्स देना चाहिए, ऐसी भावनाओं को समझने के लिए ।
घुघूती बासूती जी,
सही कहते हैं । मैं भी इस मामले में खुशनसीब हूँ – खून के रिश्ते में वे नहीं है पर कुछ लोगों का ऐसा निर्मल प्यार मिला है ना – कृतज्ञ महसुस करता हूँ – फिर कविताओं और कहानियों से उसे चुकाने का
(नाकाम) कोशिश करता हूँ ।
शास्त्री जे सी फिलिप जी,
हाँ बचपन की आँखों से कुछ बिछड़े लोगों से मिलने की कोशिश की । आपलोगों के साथ बस बाँटने से एक सकुन सा मिलता है ।
आपके विचार तो हमेशा की तरह एक नये परिपेक्ष में सोचने को प्रेरित करते हैं । यहाँ रखने के लिए बहूतों धन्यवाद ।
अनूप जी,
आपकी कामनाओं को सफल करने की पुरी कोशिश करूँगा । और हाँ आपसे एक अनुरोध है – पहले की तरह किसी भी वर्तनी की गलतियों को सुधार करेंगे ।
जूनेली ,
तुम्हारी यादास्त पर अचंभित हूँ मैं । वैसे उनके बारे में एक जगह लिखा था मैनें अपने अंग्रेजी ब्लाग के 10 जनवरी के पोस्ट में – और मुझे लगा उसके बारे में बता रहीं है । सच कहूँ तो मैं भुल गया था कड़वा-सच वाली कहानी पर मेरी टिप्पणी के बारे में । वो कहानी फिर से पढ़ना चाहूँगा ।
पता है – उस दिन फोन कटने के बाद आज माँ से फिर बात की । बता रही थी – उस दिन माँ से अचानक मिलकर खुब रोई थी, खैरुन की माँ । फिर आते समय माँ ने खैरुन की माँ (अब लंगड़ाकर चलती है) को कह दिया इस बार जब मैं घर जाऊँगा, कि मैं उसे रिक्शा पर बैठाकर हमारे घर घुमाने ले आऊँगा ।
My Memo :). Don’t you remember I had made a series of My Memo of the first things. Hope you read all of them and remember :).
First I thought I read it in your blog but later on I remember that you had comment in that story.
You know the story is listed under my Creation section and was thinking to post again in a day or two and there I got to read on Khairun ki Ma. So I dropped it to post immediately as might you think that I recalled the story after reading your memo :P.
I definitely will post that story soon.
That’s so sweet of you and your mother.
हाँ वो याद है पुरी तरह 🙂 – और हिन्ट्स के तौर पर कह दूँ – ” माँ ” 😀
कहानी पोस्ट नहीं करनें का कारण सुनकर गुस्सा तो आया । इसलिए सजा के तौर पर ” पोस्ट जल्दी हाजिर हो ” ।
Prem Piyush, I am sorry for writing in English. But here living in the rudest city of India, Delhi, I have forgotten that such kind of people like your mother exist. Here I meet so many disguised behenjis who give a perfectly “cosmopolitan” outward appearance but if you try talking to them… This story is really like a breath of fresh air. And I remember famous hindi writer Shiwani after reading your post.
Prem Piyush ji I have forgotten to add ji in my previous comment. Sorry to write your name like that.
Aha Shivani :)… to add to the line.. Mahadevi, Premchand, Sarat, Mahaswheta devi.. in fact reading them we grew up. Still today in all spare time, Ma narrates me the stories from various Indian writers.
What to say about “Cosmopolitan” and “Marie Claire” behenjis 🙂 May my stories are an effort to come out of these metro suffocations.
You may comment in English too – the medium is all fine, as long as communication is successful. You may comment on other stories posted here too. And plz mere naam ke piche punch mat lagana :).
p.s. Later on you can learn Hindi typing slowly at http://uninagari.kaulonline.com/inscript.htm too whenever you find time.
New post is due. 🙂