Archive for the ‘कविताएँ’ Category
कृष्णसखा
कहीं नन्हें फुलों सा,
और नीली कलियों सा,
हाथों से सहेजकर,
हवाओं से बचाकर,
संबंधों को सहेजा है मैनें ।
मीठे स्वपनों सा,
अठखेली गीतों सा,
छिप गुनगुनाकर,
उसी हवा को सुनाकर,
सखाओं संग गाया है मैनें ।
जब कभी टुटे माला सा,
बिखरे मोती फुलों सा,
अनुभूति की डोर सजाकर,
फिर एक माला में बुनकर,
गोकुल में पहनाया है मैनें ।
वो परछाई
कहीं से एक मौसम आया,
ले प्यार की अंगराई रे ।
कहीं से फिर धुप जो निखरा,
मस्त धरा पे छितराई रे ।
कहीं से पवन झकोरे लेता,
भौंरा दिशा फिर भरमाई रे ।
कहीं से एक कूक सी आई,
गुँजित दिशा चहक जाई रे ।
कहीं से एक संदेशा आया,
अभिलाषा जीवन की ले आई रे ।
कहीं से वह साथ चला फिर,
कैसी वह मेरी परछाई रे ।
छवि साभार : http://www.amandawoodward.com
पुरूषार्थ और प्रेम
पुरूष कहलाने वाली एक काया के,
झुके कंधे और सशक्त छाती मध्य,
छिपा है, एक कोमल सा मुखड़ा,
विश्वस्त होंठ कुछ बुदबुदाते हैं ।
फिर निःशब्द होंठ, आज गुँथ जाते हैं ।
धीमे-धीमे बढ़ते उसके हाथें,
गुदगुदाती हूई फिर अंगुलियाँ,
श्यामल घटाओं के गजरों में,
दिशाहीन बस चलती जाती है।
माथे चमकता, ध्रुव सुंदर दिखता है ।
मुर्तिकार की थिरकती हैं अंगुलियाँ,
आभास कराती है, आज माटी को,
उसका अस्थित्व, उभरते आकार ।
जीवंत प्रतिमा – यही सत्य है, सुंदर है ।
माटी – मुर्तिकार दोनों मोहित हैं ।
अनोखी सृष्टि में दो दृष्टि,
वादियों में, उसके चंचल नयन,
उन पहाड़ियों के मध्य घाटी,
बस आज निहारा ही तो करती है ।
मनुज मन आह्लादित हो जाता है ।
चित्रकार की एक तुलिका,
इंद्रधनुषी थाली से रंग लिए,
स्पंदन का रंग भरती जाती है,
स्पष्ट दिखता तो, बस गुलाबी है,
चित्रकार आज पुरष्कृत होता है ।
जग को ज्ञान दान देने वाला पुरूष,
सारी कवित्व, विद्वता का पाठ भुलकर,
क्षणभर हेतु, ज्ञान के नवीन बंधन में,
कुछ अपरिभाषित पाठ पढ़ जाता है ।
उसका ज्ञान पूर्ण यहीं होता है ।
सावन की बाँसुरी सी प्रेरित,
मयूर की थिड़कन से कंपित,
तीन ताल के अनवरत पलटों तक,
शयामल घटाओं में अनुगंजन ।
प्रेमभुमि यूँ अनुप्राणित होता है ।
अनुशासित अश्वारोही का पराक्रम,
पाँच अश्वों का लयबद्ध चाल में,
अनुभूति की इस उद्विगन बेला मे,
समर्पित – फिर एक विजयी होता हे ।
पुरूषार्थ फिर परिभाषित होता है ।