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एक है मेरी बिमला दीदी
उस दिन 15 साल के बाद, करीब दिन के दस बजे, बहनों से राखी बँधवाकर अपनी गोरी, छोटी नाकवाली बिमला दीदी का याद आ रही थी । माँ से मैने कहा कि बिमला दीदी के यहाँ जाने का मन कर रहा है । माँ को आश्चर्य और खुशी दोनो हूई । उनसे पुछकर मैनें जल्दी से तैयार हो गया । जब जाने लगा तो माँ कहने लगी – रास्ते में मिठाई खरीद लेना । माँ मुझे एक राखी साथ में ले जाने को कही । मुझे अटपटा सा लगा । वह समझाने लगी – कि मैं अचानक जा रहा हूँ ना उसके गाँव में राखी नहीं भी मिल सकती है । हमारे घर पर कुछ राखियाँ हरेक बार बच जाती है – माँ उसमें से एक राखी चुनकर मेरे पाकेट में डाल दी ।
बिमला दीदी वह कोई 10-12 साल की रही होगी तब उसे उसकी, माँ हमारे घर में रख गयी थी । मैनें उसी के पास घुटने टेकना, और दूध-भात खाना सीखा था । फिर कुछ बरसों बाद जब मैं स्कुल जाने लगा था तो उसकी माँ फिर उसे हमारे यहाँ रख गयी थी – ताकि हमलोग शादी के लायक लड़का खोजकर शादी का प्रबंध कर सके । उसकी माँ किसी तरह से छोटी सी अपनी खेती और लोगों के यहाँ खेतों में मजदूरी करती थी ।
मैनें साईकिल उठाई और चल पड़ा बेलगाछी । वैसे उस दिन सुबह भी बारिश हूई थी और आकाश में मेघ थे – सो छाता मैनें ले लिया था। 15 साल के बाद भी वहाँ का सर्पीला रास्ता मुझे याद है । दो चीजें मैं जल्दी नहीं भुलता – चेहरे और रास्ते । पर बेलगाछी में कहाँ रहती है बिमला दीदी पता नहीं । पर खोज लूँगा मुझे विश्वास था । रास्ते में मिठाई खरीदी, आधा किलो रसगुल्ले – एक पालिथीन में । पालिथीन को डाल दिया साईकिल के हैंडिल पर । आधे रास्ते मैं पहूँचा था कि बारिश शुरू हो गयी । एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया ।
अपनी मिठाई की पालिथीन ठीक कर ली । रास्ते में आस-पास गाँव भी नहीं दिख रहा था । कुछ देर रुकने के बाद मुझे लगा कि मैं समय बरबाद कर रहा हूँ । छाता खोलकर एक हाथ से साईकिल पकड़कर धीरे-धीरे साईकिल चलाने लगा । शायद इस तरह से कुछ दूर और निकल जाऊँ ।
रास्ते में कहीं कहीं पानी जमा हूआ था और उस रास्ते के मरम्मत की सुध किसी को नहीं रहती होगी । हाँ कहीं-कहीं कंक्रीट पत्थर के ढेर नजर आ जाते थे । अचानक रास्ते में किसी पत्थर पर ठोकर लगी और मैंनें छाता नीचे कर साईकिल संभालने की कोशिश की । संभल गया मैं, पर देखा मिठाई की पालिथीन फट गयी थी । उससे रस टपक रहा था । अब मिठाई को हैंडिल पर टाँगकर रखना संभव न था । अब उपर से बारिश एक हाथ में मिठाई की फटी पालिथीन, जिसे अब बस एक ठोकर लगी तो सारी मिठाई सड़क पर बिखर जाती । अब शहर से जा रहे मेरे से मेहमान का हालत क्या हूई होगी – समझ लिजीए ।
मुझे अब एक पालिथीन की जरूरत थी । फटे मिठाई की पालिथीन को मैने बायें हाथ से अपने सीने से लगाकर दुसरे हाथ से साईकिल चला रहा था । शायद एक किलोमीटर गया ही होऊँगा कि एक गाँव सा दिख रहा था । वहाँ तक पहूँचने से पहले पालिथीन के अंदर कई मिठाई टुट चुके थे । वह गाँव बेलगाछी नहीं था पर वहाँ रास्ते में एक पंसारी का दुकान दिखा । मैनें उनसे एक पालिथीन मांगी । दुकानदार मेरी फटी पालिथीन देखकर परिस्थिति समझ गया । उसने एक पालिथीन दी – और भी पतली सी । मैनें सोचा कि उनसे पुछा बेलगाछी कितना दूर है । 2 किलोमीटर – उसने कहा । मेरा मन हुआ एक और पालिथीन माँग लूँ । और बिना कोई सामान खरीदे माँग भी लिया । उसे मैनें सोचा कि उसे एकाध रुपये दे दूँ , फिर लगा कि कहीं रुपये देने से उसके स्वाभिमान को ठोकर न लगे ।
बारिश भी अब धीमी हो गई थी । लगता था धुप भी निकले वाला था । मैं अब पालिथीन को अपनी अँगुलियों में लटकाकर फिर दोनों हाथों से साईकिल चलाने लगा । मैं चलता रहा, रास्ते में कुछ लोग मिलते तो पुछ लेता और कितनी दूर है बेलगाछी ।
विमला दीदी माँ की प्यारी थी । किसी पर गुस्सा कैसे करते हैं – विमला दीदी को पता नहीं था । 1986 – विमला दीदी की शादी हो गयी । हमलोग पुरा परिवार जाकर उसकी शादी का प्रबंध किये थे । पालकी में उसकी विदाई के समय मैं भी रोया था – हाँ आँसु नहीं आये थे, जैसे अपनी बहन की विदाई में आई ।
पर मुझे पता था कि जीजाजी किसी बेकरी में काम करते थे । हमारे शहर से करीब 5 किलोमीटर दूर बेलगाछी गाँव में शादी हूई थी उसकी । और उसकी शादी के बाद बहुभात में मैं उसके गाँव मामाजी के साथ गया था उसके बहूभात के दिन । दोनो की जोड़ी दो सीधे बैल की जोड़ी थी ।
ऐसी ही बातें सोचते सोचते मैं पहूँच गया बेलगाछी के करीब । रमजान नदी के किनारे बेलगाछी का गाँव वही था – दिल मेरा पुरा गवाह दे रहा था । पर अब गाँव में पहूँचकर किससे कैसे पूछेंगे – बिमला दीदी के बारे में पता नहीं । वह मुझे पहचान पाएगी भी नहीं या मैं उसे पहचान पाऊँगा भी कि नहीं ।
अगर गाँव में प्रवेश से पहले किसी से बिमला दीदी के बारे में पुछ लूँ तो अच्छा रहेगा । मैं आगे बढ़ गया । दूर से दिख रहा था एक बट वृक्ष के नीचे कुछ महिलाएँ बैठी थी । निकट गया तो पता चला वो खेत के मजदूर है । पास में धान की रोपनी हो रही है । शायद दोपहर के खाने के लिए बैठी है । मै साईकिल से उतर कर उनकी ओर जाने लगा । सब महिलाएँ मेरी ओर देखने लगी । कैसे पूछूँ और किससे पूछूँ – एक अजीब सा उधेरबुन में था मैं । उनके सामने मुझे ऐसा लग रहा था कि सब महिलाओं के जिज्ञासु चेहरे मुझसे स्वाभाविक रूप से पुछ रहे थे – आप किसे खोज रहे हैं । मेरी नजरें बीच में बैठी एक महिला पर अटक गयी । गोरी सी, छोटी सी नाक । और उसकी आँखे मुझ पर । मुझे लगा कि वह बिमला दीदी जैसी लगती है । मैनें अपने को धिक्कारा – 15 साल के बाद ऐसे किसी मजदूर महिला के साथ बिमला दीदी को कैसे तुलना कर सकता हूँ । पर वह महिला मेरे तरफ देखे जा रही थी । मुझे लगा कि उन्हीं से पुछ लूँ ।वो अपने बगलवाली महिला से कुछ बात करने लगी – फिर अचानक कह उठी हमारे देशी भाषा में – “प्रेम नाकी” ( प्रेम हो क्या ) ।
“बिमला दीदी” – मैनें भी पुकार लिया । “भाई रे – भाई” – वह उठकर सामने आने लगी । सारे औरतें हम दोनों की और देखने लगी । मैनें साईकिल को स्टैंड लगाकर आगे बढ़कर उसके पैर छूए । वह बाकी महिलाओं को कहने लगी – जिस भाई की बात वह आज उनसे कर रही थी – वह मैं ही था । आज वह किसी को राखी नहीं पहनाई थी । कई साल पहले वह राखी लेकर हमारे घर आई थी और हम भाईयों को घर में नहीं पाकर चली गयी थी । वह दूसरे मजदूरों को कह दी कि वह घर जा रही है – वह अब नहीं आएगी । मैनें मिठाई की पालिथीन उसके हाथ में थमा दी ।
सब महिलाओं के चेहरे पर आश्चर्य का भाव और विमला दीदी के लिए खुशी का सागर । मैनें पुछा, वह मुझे कैसे पहचानी । उसने सरल शब्दों में मुझे चुप कर दिया – “जो मेरे सामने घुटने टेकने सीखा, खाना सीखा, उसे मैं नहीं पहचान सकूँ” । मैनें पुछा – वह यहाँ खेतों में क्या कर रही थी , चुकि मेरा विश्वास था कि वह शायद मजदूरों कि निगरानी के लिए आयी होगी । उसने बतायी – आजकल थोड़ा काम मिला है, कई दिन से वही कर रही थी । मेरी बिमला दीदी – खेत की मजदूर । जीजाजी किसी मिठाई के दुकान में आजकल काम करते हैं ।
मैं उसके साथ उसके घर गया । देखा उसका दो घर , कच्चा सा । एक रसोईघर, कोने में । उसने सारा हाल कह सुनाया कैसे उसके दिन बीते । बीच में बगल की एक लड़की को बुला लाई खाना बनाने के लिए । और मुझे नास्ता परोसा – भूजे हूए चुरा दुकान से अभी खरीदी डालमोट और आलु की महीन भुजिया ।
और कह गयी बेटी को आँगन लेपने और खुद निकल गयी गाँव की और – अगर मैं गलत ना था तो कुछ खरीदने । वापस आकर नहाने गयी – और नयी सुती साड़ी पहनी, शायद शादी-विवाह में एकाध बार पहनी होगी और पुरानी मैंचिंग की ब्लाउज । बीच बीच में रसोई में जाकर कुछ कह आती । उसके आँगन में आज मेहमान आया है ।
उसने राखी की थाली सजाई – बरामदे पर – दुब, धान, पानी का लोटा – उसमे आम का पल्लव । टीका के लिए चंदन तो था नहीं थोड़ी सी कहीं की रखी अबीर । और थाली में एक कोने पर पड़ी थी – दीदी का खरीदा हुआ राखी – छोटा सा – शायद दो रुपये का होगा – फोम पर चमचमाते प्लास्टिक और लटकते नन्हें से धागे – पतले से । बैठने के लिए लकड़ी की पिढि़या । मैं बैठ गया । मुझे याद थी कि मेरा पाकेट में घर से लायी राखी पड़ी है – पर मेरा मन हुआ कि मैं वही राखी पहनूँ । सस्ती वाली दीदी की । धान-दूब से मेरा आदर हुआ । हमारे यहाँ शुभ मुहूर्त में महिलाँए उलू ध्वनि देते है । उसने भी दी । अब वह राखी को उठाकर उलट पलट ही रही थी और बता रही थी – उसके गाँव में एक ही दुकान में राखी मिली । राखी के धागे इतने छोटे थे कि मेरी कलाई मे नहीं बँधते । वह अफसोस कर रही थी । मेरा मन नहीं माना – मैनें बता दिया कि माँ ने एक राखी भेजी है और निकालकर उसे दिखाया । शहर की डिजाईनर राखियाँ – उसके आँखों में एक चमक सी छा गयी । पर मैनें कहा कि, दीदी मुझे आप अपनी वाली राखी पहनाओ । लेकिन अच्छी राखी पाकर, वह अब अपनी राखी को अलगकर रख दी । वह कहने लगी, मामी ( मेरी माँ को वह मामी कहती है ) कितनी अच्छी है । मैं हमेशा कि तरह मान गया, कहानियों और कविताओं से परे महिलाओँ की कुछ भावनाएँ महिलाँए ही समझती है ।
हाँ एक कटोरे में मिठाई थी – मेरा लाई हूई । मुझे वह मिठाई खिलाने लगी – और अपने मुँह की अधकटी मिठाई मैनें भी उसे खिलाई । मैनें थाली में रख दिये सौ रुपये का नोट । शाय़द दो दिन की मजदूरी सी होगी । पर वह अधिकार से बोल पड़ी – भाई अगले बार साड़ी लुँगी ।
अब जब तक खाना पक रहा था । वह मुझे गाँव में सब संबंधी के घर घुमाने ले गयी । और बीच-बीच में बताती जाती – कैसे लोगों ने जमीन बँटवारे के समय जीजाजी के साथ बेमानी की । पर आश्चर्य मुझे लगा कि सबके साथ उसके व्यवहार अच्छे थे । सारे जगह पर वह भाई की बड़ाई करती और शो-मेन जैसा पेश करती जाती । चाय का पेशकश मुझसे पहले वही ठुकरा देती – पर वह अंडे के बारे में सबसे पुछ लेती । गाँव में अंडे दुसरों के घरों से खरदते हैं। अंतिम मे एक घर पर चाय के लिए हां कह दी । और वहाँ से कुछ अंडे भी ले ली ।
खाना बन गया था -मेहमान को अकेले नहीं खिलाना चाहिए इसलिए साथ में बैठा था उसका बेटा जो छठी में पढ़ता था । परोसा गया – मोटा चावल का भात, लकड़ी के चुल्हें पर पका मुँग का दाल, भिंडी की भुजिया , पटुए का साग, आलु-परवल की तरकारी और स्पेशल आईटम – अंडे का आमलेट । फिर भोजन समाप्ति पर वही मेरी वाली मिठाई फिर से ।
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आज अभी रक्षा-बँधन का बर्ह्ममुहूर्त है । सुरज उगने में कई घंटे और बाकी है – पर बिमला दीदी के लिए यह रतजगा छोटा संस्मरण भी कम है । कल आफिस की कामों में उसे याद कर पाऊँ या ना कर पाऊँ, पर मुझे पता है -फिर कल दिन में शायद धान की खेतों में बहना – भाई को याद करेगी ।
प्यासी पगली
वह शुक्रवार का दिन, और कंपनी की टीम लंच-पार्टी । क्या पियेंगे आप- मिनरल वाटर, सोडा वाटर या और कोई कोल्ड ड्रिंक , मीनू देखिये और बस आर्डर किजिए जनाब , चाहे तो फलेवर वाली लस्सी और बटर-मिल्क भी है ।
उस दिन दोपहर का खाना था इसलिए ‘लाल-शरबत’ का आयोजन नहीं था । वैसे मैं पीता नहीं हूँ पर मैनें देखा है यहाँ पर, सोमरस बिना पार्टी नहीं होती है यहाँ । फिर भी मस्त पार्टी हूई थी । चुँकि अबकी बार हमारे नियमित रेस्तराँ से ये अलग यह एक नया रेस्तराँ था, इसलिए स्वाद जीभ पर चिपक कर रह गया । करीब 35 जनों की हमारी टीम में हमलोग गये थे मस्त से रेस्तरां में । हँसी-मजाक और टेबल पर पिघल रहे थे आईसक्रीम पर लाल-लाल चेरी। उस दिन भी सभी ने जम-कर खाया-पीया ।
और पार्टी के बाद हमलोग वापस हो रहे थे । लौटते समय भी अपने कैब में मैं आने के समय के तरह ही नहीं बैठा था । ऐसे समय में मस्ती मुझे भाती है । कैब का JBL सराउंड साउंड सिस्टम इतना मस्त था कि चलती कैब में भी मैनें नाचने की कोई कसर न छोड़ी थी । आते समय खुब नाचा था – अपने दोस्तों के साथ । अबकी बार लौटती बार में भी पेट भरा होने पर भी थोड़ा थिरक तो जरुर सकता था ।
अभी थिड़कना मैनें शुरू ही किया था कि, ट्रैफिक पर कैब रुक गयी ।
खैर मेरा मन हूआ कि थोड़ा बाहर देखुँ । थोड़ा झुककर बाहर झाँककर देखा तो एक पानी का टैंकर का पीछे वाला हिस्सा दिखा । उसके पास घुम रही थी एक किशोरी लड़की – पगली सी। उमर होगी कोई 18-19 साल या और कम पता नहीं लगा मुझे। उसकी पतली सी काली सी देह पर, गंदे से सलवार-कमीज । पतली रस्सी सी मटमैली पीली चुनर कमर पर बँधी हूई ।
अब मेरे डांस वाले थिड़कते पैर – पता नहीं क्यों जम से गये । मैं देख रहा था, उस पगली की आँखों को । मुझे लगा वह कुछ खोज रही थी। शायद ढुँढ रही थी रास्ता या और कुछ । वह टैंकर के पीछे गयी । जहाँ टैंकर के पीछे से पानी नल से टपक रहा था, वहाँ वह खड़ी हो गयी । और जल्दी ही मेरी शंका दुर हो गयी । पता चला वह पगली नहीं थी – वह कान साफ करने के बड्स बेचने वाली थी । उसके हाथ में कुछ पैकट थे – कान साफ करने वाले सस्ते रंगीन बड्स के । जिसे शायद ट्रैफिक जाम में रुके कार के अधखुले खिड़कियों और हेलमेट से मुखड़े लगाये सभ्य लोगों को बेचती थी ।
पर उसके आँखों से साफ था कि वह अभी वह बड्स खरीदने वाले ग्राहक नहीं ढुँढ रही थी । उसने अपने बड्स के पैकेट को झोले में जल्दी से डाल दी । टैंकर से पीछे वाले जिस नल से पानी की बुँदे टपक रहा था , वहाँ पर पानी निकलने वाले हैंडल को उसने थोड़ा घुमाया, और वहाँ से पानी की पतली सी धारा बहने लगी सड़क पर । वह अपने हाथों से चुल्लु बनाकर पानी की धारा गटक रही थी । लग रहा था, महीनों से प्यासी है वह । बता दूँ कि पानी मुफ्त में नहीं मिलता है यहाँ बंगलौर में – और वह टैंकर भी कहीं किसी के घर में पानी बेचने जा रहा होगा । पर उस दिन खुले सड़क पर, वह पी रही थी बेचे जाने वाली पानी – मुफ्त मे । पर वह पी रही थी चोरी-चोरी – सबके सामने । कहीं टैंकर का ड्राईवर या खलासी देख न ले – वह गटक रही थी पानी उस तपती दुपहरिया में । उसके सलवार पर पानी के छींटे गिर रहे थे । पानी पीकर उसने उस बहती धारा में अपनी बाहों को आधा धो लिया । उसकी कमीज का निचला किनारा भींज चुका था ।
हमारी कैब की खिड़की से सब लोग अब यह सब देख रहे थे । टैंकर के पीछे खड़ी थी – होंडा सीटी कार । उसकी काँच के पीछे से भी चार आँखें उसे देख रही थी । उसने अब उस पानी से जल्दी-जल्दी अपना चेहरा धो लिया – थोड़ी साफ सी हो गयी थी अब वो । सारा कुछ हो गया करीब 1-2 मिनट में । अब शायद उसका समय हो गया था । ट्रैफिक का जाम भी अब साफ हो सकता था। अब वह टैंकर का हैंडिल बंद करते-करते अपने पैर भी धो डाली । नल बंद होते ही पानी की धार रुक गयी । उसका काम हो गया था ।
इतनी सफाई से टैंकर का नल खोलना और बंद करने से साफ हो गया कि हमारी पगली ऐसे कामों की अभ्यस्त थी । अब धोये हूए भींगें सामने के बाल, भींगें सलवार-कमीज के छोर । प्यासी की तृष्णा बुझ चुकी थी । उसकी चेहरे पर एक तृपती सी आ गयी । अब जल्दी से दो बड्स के पैकेट निकाल कर सड़क के उस पार चली गयी । मुड़कर भी नहीं देखा टेंकर की ओर या मुझ लेखक को ।
वह मेरी आँखों के सामने से ओझल हो गयी थी पर – भींग गयी थी बहुत सी चीजें – भींग गयी थी काली तपती सड़क, दो चार बुँदों से भींग गयी होगी – हमारी लंच-पार्टी की कैब की पहिए । भींग गयी होगी – एकाध पानी की छींटों से कार की बम्पर ।
ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती हरी हो गयी । चल पड़ी हमारी कैब । चल पड़ी टैंकर । चल पड़ी कार । और टैंकर के पीछे नल से पहले की तरह से टपक रहा था बुँद-बुँद पानी ।
सड़क पर आम
आज दिन के करीब 11 बज रहे थे । बंगलौर की सड़कों लोगों और गाड़ियों के हिसाब से संकड़ी दिखती थी । इन सड़कों जैसी रगों में दौड़ती थी – हमारी अर्थव्यवस्था की जान और रंगीन कारें,खचाखच भड़ी बसें, स्कुटी और मोटरसाइकिलों की पुरी जमात ।
इस तिराहे पर कोई लाल बत्ती नहीं थी पर चेहरे पर मास्क लगाकर खड़ा था – ट्रैफिक पुलिसवाला । लाल बत्ती और हरी बत्ती के ईशारे को उसके हाथों से समझने की जरुरत होती थी । ट्रैफिक ज़ाम का मतलब होता था – कोई आधी किलोमीटर तक गाड़ियों की लाईन । देखकर लगता था – एक का पुँछ पकड़े दुसरा तैयार है – दौड़ लगाने को ।
ऐसी ही गाड़ियों के लाइन में सबसे सामने खड़ा था – एक आमवाला । उसके ठेले पर भड़े परे थे – पीले पीले पके आम । काफी बड़े बड़े आम थे । शायद सुबह ही उसने करीने से सजाए रखे थे – पहाड़ की तरह । इन गाड़ियों और लोगों के बीच में सामने में खड़ा आम का ठेला एक बार तो सबकी नजरें जरुर अटकाता होगा । इस महीने आम की बिक्री भी खुब होती होगी इसलिए आम सजे हुए थे – लगभग ठेले के अंतिम कोनों तक ।
उसके दाहिने बगल खड़ी थी एक हरे रंग की सुंदर सी बड़ी कार । अंदर कार के अंदर बैठे लोग ए सी में म्युजिक सिस्टम सुन रहे होंगे । । कम से कम 50 हजार रुपये की मासिक कमाने वाला कारवाला और 5 हजार रुपये कमा लेने पर खुश होने वाला आमवाला । भारतीय अर्थव्यवस्था की सच्ची तस्वीर । ट्रैफिक जाम में दोनों अटक पड़े – खैर दोनों ही इंतजार कर रहे थे – टैफिक पुलिस की इशारे की । बस हाथ का इशारा होता तो दोनों दौड़ जाते ।
दुसरी और से गाड़िओं की काफी लंबी कतार खत्म हो गयी तब ट्रैफिक पुलिस वाला इधर की और इशारा करने ही वाला था गियर चेंज किया कार वाले और ठेले को थक्का देने के लिए तैयार आमवाला ।बायीं और खड़े नवयुवक अपनी मोटरसाईकिल स्टार्ट कर चुके थे ।
ट्रैफिक पुलिसवाले ने जाने के इशारा कर ही दिया – अचानक आमवाले के बाँयी और से निकल गया एक मोटरसाईकिल वाला । और आमवाला अपने ठेले को धक्का दे रहा था कि थोड़ी झटक लग गयी ठेले में । ठेले के सामने से करीब आठ – दस आम लुढ़क कर सड़क पर गिर गये कार के सामने । कारवाले ने एक्सीलेरेटर नहीं दबाया था पर बस कार के पहिये से बस एक फीट की दुरी पर कुछ आम थे ।
ठेलावाला झट से दौड़कर कार के सामने आ गया – चुनने लगा आम । एक आम को चुनकर हाथों से छाती पर अटकाया फिर दो आम चुनकर ठेले पर उसने रखा । फिर जल्दी से झुकाया सर कार के सामने फिर से चुनने के लिए । किसी तरह से उठा लिया उसने एक आम को – पर बढ़ने लगी कार की गति । अभी भी कई और आम पड़े थे – नहीं रुकी कार । जैसे ही आमवाला ठेले पर आम रखा ही था कि – काली सड़क पर काली टायरों ने आमों को पिचक दिया । कार निकल गयी और पिचका गई दो आमों को । अब भी आमवाला देख रहा था उन आमों को जो गाड़ी के सामने ठीक बीच में गिरे थे – जिन पर टायरें नही जा सकती । बचे आमों को चुनने फिर बढ़ गया आमवाला । चुन लिया उसने दो साबुत आम बिना परवाह किये पीछे हार्न बजाती गाड़ियों का । उसने फिर ठेले पर आम रखा ही था कि फिर बाकी कई आमों को फिर पिचकाती गई दुसरी गाड़ियाँ । अब वह देख रहा था एक बचे आम को – जो सारी पहियों से बच गया – वह उसे चुनना चाह ही रहा थी कि एक जीप का चक्का उसे भी पीस कर निकल गया ।
ठेले के दाहिने – बायें दोनों तरफ से गाड़ियाँ निकलती चली गयी । बीच में रह गये करीब दो किवंटल आमों से लदा एक ठेला – पसीने से लतपत आमवाला – और उसकी दो धँसी हूई आँखें जो देख रही थी सड़क पर पड़ी गुठलियाँ – पिचके आम का पानी सा गुदा – और सड़क से चिपके छिलके ।
अगर बस एक मिनट से भी कम समय बड़े लोग उसे दे देते तो वह अपना सारा आम चुन लेता । किसी ने न सीखी आम की सीख – जो महीनों तक धुप-पानी सहकर एक दिन दुसरों को मिठास देता है ।