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भगवानजी का प्रसाद ( एक छोटी कहानी )

उस दिन आकाश का आठवां जन्मदिन था । घर में सबसे ज्यादा खुश थी तो उसकी दादीमाँ । उनके ढलते जीवन में एक नया आधार बड़ा हो रहा था । दादीमाँ अपने बेटे शेखर को कहती भी थी कि उसने उसे आज तक दो ही सबसे अच्छी चीजें दी – एक तो उसकी गुजराती बहू, दूसरा उसका पोता आकाश । दादीमाँ को लगता था कि आकाश बिलकुल उसके दादाजी पर गया है ।

वैसे सुबह की पूजा हो या रात में कहानी सुनने का समय, आकाश अपने माँ-पापा से ज्यादा समय दादी के साथ बिताता था । आकाश क्लास में हमेशा प्रथम आता था । सबसे अच्छी बात यह थी कि शाम के समय दादी माँ कुछ किताबें पढ़ती रहती और आकाश वहीं बैठकर होमवर्क भी करता रहता । ज्यादातर घरों में दादी के लाड़-प्यार में बच्चे बिगड़ जाते हैं पर आकाश को लेकर, शेखर को अपनी माँ से कोई शिकायत नहीं रहती ।

शेखर माँ के विचारों से अलग, आधुनिक विचारों को मानने वाला था और अपने ढंग से आध्यात्म का व्याख्या करता था । शेखर नास्तिक नहीं था पर उसका मानना था कि ज्यादातर कर्म कांड और फुल-प्रसाद के देवी पुजन सारे बेकार से है ।

वैसे शेखर ने माँ के कहने पर अपने बंगले के ड्राईंग रुम के पूर्व दिशा की ओर पुजा का एक घर बनवा दिया था । जहाँ आकाश बचपन से ही अपनी दादीमाँ के साथ पुजा में बैठता था (मीठे प्रसाद के लिए) ।

खैर उस दिन घर में शेखर ने आकाश के जन्मदिन की तैयारी ऐसी की थी कि लगता था उस दिन आकाश की शादी होने वाली थी । घर में दोनों फुआ, फुफा, मिनी, रोजी और नन्हा गोपी सब आये हूए थे । छोटे-छोटे बच्चों का इधर से उधर कुदना, उनकी छोटी मोटी शिकायतें और मम्मी लोगों की आज गपशप – माहौल काफी चहलपहल का था ।

आकाश की फुआ आज उसे नई लाल साईकिल भी दे दी थी। नयी साईकिल कोने में रखी थी । फुफेरी बहन मिनी और रोजी ने सारे बैलुन ड्राईंग रुम में सब जगह टाँग दिये थे । हाँ, पंखे पर बैलुन टाँगने के लिए जब जरुरत पड़ी तो मिनी ने अपनी माँ को मेज पर चढ़वा दिया । यह देखकर सब हँसने लगे थे ।

पर आज दोपहर के पुजा के बाद से पता नहीं क्या हूआ, आकाश अपने जन्मदिन पर गंभीर सा हो गया था और आकाश को फुआ ने पुछ भी लिया कि – “क्या साईकिल उसे पसंद नहीं आयी” । पर आकाश ने फुआ को कहा कि “साईकिल बहूत अच्छी है” ।

वैसे, आज शेखर ने अपने बेटे के इस जन्मदिन के लिए विशेष इंतजाम करवाया था । बड़ा वाला केक आर्डर देकर मँगवाया गया । उस पर लिखवाया था Happy Birthday Day to Amit. मेहमानों के खाने के लिए नामी रेस्तरां “शीशमहल” से केटरिंगवाले को बुलवाया गया। करीब 40-50 मेहमान आने वाले थे ।

आरती ने आकाश को पहनायी थी, सिल्क की सुंदर सी शेरवानी । वह छोटा दुल्हा सा लग रहा था । आरती खुद तैयार होकर शेखर को भी नये कपड़े निकाल दी । मजे की बात तो यह थी कि दादीमाँ ने आज खुद निकालकर नयी साड़ी पहनी थी, वैसे बाकी दिनों में आरती को सासु माँ से साड़ी पहनने के लिए कहना पड़ता था ।

सात बजे तक सारे मेहमान आ गये थे । ड्राईँग रुम लगभग भर सा गया था । उपर टंगे बैलुन मेहमानों के सिर से टकराकर लहराते से थे । जगह की कमी के कारण, शेखर के कुछ दोस्त बरामदे पर ही बैठे थे ।

कमरे के बीच में आरती ने केक को बहूत सुंदर ढंग से सजाया था । शेखर के इस बार के सुगंधवाले मोमबत्ती से माहौल काफी खुशनुमा हो गया था । बेटे के जन्मदिन पर उसने आज खर्चे में कोई कमी नहीं की थी । आरती शेखर की ऐसी फिजुलखर्ची पर थोड़ी नाराज भी हूई थी ।

पूरी तैयारी के बीच, अब केक कटने वाला था । बीच में आकाश, एक तरफ दादी माँ दुसरी तरफ आरती और उसके पास में शेखर । मोमबत्ती की रोशनी मे आकाश का चेहरा चमक रहा था । आकाश ने मोमबत्ती को फुँक से बुझाया और सबने गाये हैप्पी बर्थडे वाले गीत ।

“बेटा केक काटो और पहले माँ को दो ” – दादीमाँ कही ।

आकाश बड़े सलीके से केक काटकर अपने माँ के मुँह में केक पहूँचाने लगा । आरती हाथ में उसी केक को लेकर वापस आकाश को खिलायी । यह देखकर सब मुस्कुराने लगे ।

“बेटा अब पापा को” – दादी माँ कह पड़ी । आकाश दुसरा टुकड़ा काटकर पापा को नहीं देकर दादी माँ के मुँह में डाल दी । दादी माँ फिर कह पड़ी – “बेटा पापा को दो… ” ।

आकाश ने केक का तीसरा टुकड़ा काटा और फुआ की ओर हाथ बढ़ा दिया । आकाश ने पापा की ओर देखा भी नहीं । आरती, दादी माँ कुछ समझ नहीं पायी । आकाश सामने खड़े पापा का ऐसा नजरअंदाज कर रहा था – दोनों समझ रही थी पर कुछ कह न पाती थी ।
चौथा टुकड़ा भी कटा और पाँचवा भी । केक पाकर खुश हो गये मिनी और रोजी ।

दादीमाँ कह पड़ी – “बेटा पहले माँ-पापा को केक देते है । वे तुम्हारे जन्मदाता है ना ।”

आकाश दुसरी और देखकर कहने लगा । “हाँ पर यह केक तो उन्होनें मुझे खाने को दिया है ।”

बेटे के ऐसा कहने पर शेखर को बहुत बुरा लगा होगा पर उसे समझ में नहीं आया आकाश ने ऐसा क्यों कहा । मेहमानों के सामने उसने मुस्कुराने की कोशिश तो की – पर उसके चेहरे को देखकर लगता था कि बर्थडे की सारी तैयारी कहीं फीकी रह गयी ।

“बेटा कैसी बातें कर रहे हो ।” – कहकर दादीमाँ फिर बात बदल दी – और हँस पड़ी ।

पर मेहमान कुछ खास समझ न पाये । केटरिंग वाले अपना स्वाद जीभ पर छोड़ गये । लोग गिफ्ट देकर चले गये । सबने खाने की प्रशंसा की थी पर शेखर की तैयारी की तरह ही एकाध बैलुन फट गये थे । कुछ रंगीन फीते जमीन पर गिर थे ।

और मेहमानों के जाने के बाद, बाहर बालकोनी में कुर्सी पर, शेखर गहरे सोच में डूबा हुआ चुपचाप बैठा था । किसी ने एक भी गिफ्ट की पैकेट नहीं खोली । कहीं कुछ गलत हो गया था । और अंदर सोफे पर लेटा था आकाश, और पास में चुपचाप बैठी थी मिनी । दादीमाँ उनके बगल में बैठ गयी । वह जानती थी आकाश को पापा से कुछ हुआ है ।

“बेटा तुमने पापा को वैसा क्यों कहा ? ” – दादीमाँ पुछ ही बैठी ।

“मैनें कहा ना… सब कुछ पापा ने मुझे ही तो दिया, वैसै उन्हें मैं न भी दूँ तो वो बाजार से खरीदकर खा सकते हैं ना । “

आकाश आज अजीब सी बात कर रहा था । दादीमाँ उसकी हथेली सहलाकर कहने लगी – “बेटा तुम ऐसी बातें क्यों कर रहे हो ? “

“अच्छा दादीमाँ आप मुझे बताती हो ना हमारे, आपके, पापाके, मम्मीके ….सबके पिता कौन है – भगवान ना …।” एक सांस में वह कह रहा था । ” …..हम सबके देने वाले कौन है – भगवान ना । “

“हाँ बेटा … ” दादी माँ अब कुछ समझ रही थी । बेटे के मुँह से ऐसी बातें सुनकर आरती साड़ी का पल्लु बाँधे सासु माँ के पीछे चुपचाप खड़ी हो गयी ।

“तो फिर हमलोग रोज भगवानजी को भगवानजी का ही दिया प्रसाद क्यों चढ़ाते हैं ? “

“बेटा मैनें तुम्हे बताया था ना, प्रसाद चढ़ाकर हम भगवानजी के पास आभार प्रकट करते है । खाने की इतनी चीजें देने वाले भगवान जी का क्या पाँच पेड़े या लड्डू से पेट भर जायगा । पर खुद खाने से पहले, खाने की चीजें भगवान को चढ़ाने से मन को शांति मिलती है और भगवानजी खुश होते है । ”

दादी माँ को कुछ कहने का अभी मौका मिल गया । वह आगे कहने लगी – “इसलिए तुम्हें भी पिताजी को खिलाकर केक खानी चाहिए । पापाजी तुम्हारे लिए ही केक लाया थे पर तुम्हें खुद खाने से पहले उन्हें देने से, पापाजी को अच्छा लगता ना । “

“हाँ, तो यही बात पापाजी क्यों नहीं समझते… ” जोर-जोर सो आकाश कहने लगा ।

“जैसे पापाजी भगवान का दिया हुआ खाने का चीज भगवान को नहीं चढ़ाते हैं वैसे ही मैनें भी उनका दिया हुआ केक उनको नहीं खिलाया … ।” आकाश का आवाज में अब एक हल्की कंपकपी सी थी । उसका गोरा सा गाल गुलाबी हो रहा था ।

“पापाजी ने हमारे घरवाले भगवानजी को कभी प्रसाद नहीं चढ़ाये और न ही प्रणाम करके आपसे कभी प्रसाद ली । और आज उन्होनें गोविन्द के लिए कुछ नहीं लाया … ” आकाश की अबोध सी आँखों नें अपनी शिकायतों की पोटली नमीं में भिंगो दी ।

अब दादीमाँ, माँ, फुआ सबको याद आ गयी उस दिन दोपहर का प्रसंग, जब बर्थडे के सामान खरीदने में आज शेखर पूजा का भोग नहीं खरीद पाया और दादीमाँ थोड़ा नाराज हो गयी थी ।

तभी जवाब में शेखर ने भी माँ को सीधे कह दिया था, “……..भगवानजी कभी स्वादिष्ट प्रसाद नहीं माँगते……” ।

और शेखर से ऐसा सुनकर, कई और दिनों की तरह उस दिन भी दादीमाँ डब्बे वाली मिश्री-किशमिश का भोग चढ़ा दी थी । और आकाश ने सब कुछ चुपचाप देखा था।

दादीमाँ बस पोते का मुँह देखे जा रही थी । आरती पीछे खड़ी चुपचाप बस बेटे की बातें सुन रही थी । फुआ ने तो साड़ी का पल्लु होठों में भींच लिया ।

आकाश अब बालकोनी की ओर देखकर कह रहा था – “देखो ना दादीमाँ, मेरे केक नहीं खिलाने पर गुस्सा करके कैसे वहाँ पर बैठे हैं । अब आप बताओ गोविंदजी आज दोपहर को उनपे कितना गुस्सा करते होगें ।” कहकर उसके होठों पर एक शरारत झलक पड़ी ।

सब लोग सामने देख रहे थे बालकोनी की ओर, जिधर से शेखर बेटे की सारी बातें सुन रहा था । आज पैतीस सालों में जो बातें उसने पिताजी से न मानना चाहा था, बेटे ने एक दिन में उससे भी ज्यादा समझा दिया था ।

सबने देखा – शेखर बालकोनी से निकलकर, बायीं ओर मंदिर की और जा रहा था । आज वह भगवान के सामने घुटने टेककर काफी देर तक फर्श पर सिर नवाये रखा । सिर उठाकर हाथों से प्रसाद में चढ़े मिश्री का बचा अंतिम टुकड़ा उठाया, जिसे चीटियाँ उठाकर ले जा रही थी ।

शेखर प्रसाद उठाकर मंदिर से बाहर निकला और वहीं फुआ के साथ सामने खड़ा था आकाश । आकाश के छोटे से उठे हाथ की गोरी अंगुलियों में चिपका था केक का बचा हुआ क्रीम । शेखर को लग रहा था आज उसके बेटे का ही नहीं बल्कि उसका भी जन्मदिन है ।

बेटे की आँखे – बाप से बहूत कुछ कह रही थी । आकाश के उठे हाथ और उसमें चिपके सफेद क्रीम जैसे कह रहे थे – “पापा, आपका प्रसाद ।” शेखर ने आकाश को बाँहों में भरकर उठा लिया ।

उस समय दादीमाँ की नम आँखें एक जन्मदिन मना रही थी ।

खैरुन की माँ

पिछले पोस्ट में बिमला दीदी के बारे में आपलोगों ने पढ़ा होगा तो, एक ऐसा ही दुसरा संस्मरण एक ऐसी महिला के लिए – जो हम भाई बहनों की परवरिश में मां का साथ निभायी । आज कारपोरेट जिंदगी से फुरसत के कुछ लम्हों में आज मिलवाता हूँ – मेरी खाला – “खैरुन की माँ” से ।

अभी शाम को माँ का फोन आया था । वह “खैरुन की माँ” के यहाँ से बोल रही थी कि और बता रही थी “खैरुन की माँ” मुझे याद करती है । वह शिकायत कर रही माँ को – कि मैं अबकी बार जब घर गया था तो उससे मिलने क्यों नहीं गया । फिर माँ ने अपना मोबाईल खैरुन की माँ के कानों से लगा दिया । मैने उससे बात कि और बताया कि – मैं उसे बराबर याद करता हूँ और कुछ दिन पहले तो और भी ज्यादा । वह कहने लगी – “अल्लाह बेटा …. ” और नेटवर्क कट गया और मैं…. । मैनें फोन लगाने की कोशिश की पर नहीं लगा । दरअसल जिस दिन मैं बिमला दीदी के बारे में लिख रहा था तो खैरुन की माँ की भी याद आ रही थी ।

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उन दिनों मैं शायद चौथी कक्षा में पढ़ता होऊँगा । पर पुरी तरह से याद है वह रविवार का दिन । “माँजी-माँजी कुछ भीख देना” – हर रविवार की तरह उसदिन भी भिखारी एक-एक कर आते और चले जाते । लंगरू और कालु जैसे सारे भिखारी हमारे दरवाजे पर नियमित आते थे । हमारे यहाँ भिखारियों को ज्यादतर समय चावल देते है । एक भिखारिन भी हमेशा आती थी । उस दिन उस भिखारिन के साथ एक दूसरी साँवली – दुबली पतली भिखारिन आ गयी थी । उसकी उम्र होगी कोई 35 साल । चुँकि उस दिन दो भिखारिन थी – माँ प्लेट में दुगुना चावल लेकर निकली । और उस नये भिखारिन के आँचल में भीख देने जब वह सामने गयी तो माँ का मन नहीं माना कह ही दिया । वह बहुत गरीब लग रही थी पर वेष-भुषा से भिखारी नहीं ।

“इतना अच्छा देह है, कुछ काम-वाम क्यों नहीं खोजती ?” – माँ पुछ ली ।

वह चुप रही । माँ ने फिर दूहराया ।

“कौन देगा काम मुझे” – वह भिखारिन बोल पड़ी

“कुछ भी कर सकती हो – काम की कमी रहती है क्या ? ” – माँ कहने लगी – “कब से भीख माँग रही है ?”

“आज ही पहली बार निकली हूँ । ” – वह कह पड़ी ।

“हमारे यहाँ काम करोगी ? ” – माँ पुछ बैठी ।

उसने सिर हिलायी । उसका इतना हाँ के इशारे में सिर हिलाना था उसे भीख नहीं मिली । और हमेशा वाली भिखारिन को उस दिन इसके हिस्से का भी चावल मिल गया ।

माँ ने उस महिला को वहीं रोक लिया । उसके पोटली में पिछले कई घरों के माँगे चावल पड़े थे ।

उस महिला के गाल पिचके से थे । साड़ी -चोली और कपड़ा से पुरा माथा ढँका – वह मुसलमान थी । पुछने से पता चला कि दो बेटे हैं उसके । बड़ा बैटा – खैरुन दिल्ली में काम करता है – घर से उसका कोई लेना – देना नहीं । एक बेटा है तीन साल का । और एक बेटी है – 10 साल की कलुआनी । पति भी है उसका – पर दो महीने से लकुआ के कारण बिस्तर पर पड़ा है । घर में खाने के कुछ नहीं है । कभी मजदूरी नहीं की इसलिए उस दिन आ गयी भीख माँगने आ गयी उसके गाँव वाली के साथ । माँ का अनुमान गलत न था ।

माँ ने उसे रोक तो लिया था पर काम क्या करने को दे यह सोचकर मुश्किल में पड़ गयी । उसे कह तो दी की काम की कमी नहीं रहती है – पर अपने घर में इतनी जल्दी क्या काम दे मुश्किल में पड़ गयी । उस समय कपड़े धोना या बरतन माँजने या पोछा लगाने वाले काम का तो प्रश्न ही नहीं उठता था । एक काम निकल पड़ा – भुटिया सिलाई करना । भुटिया मतलब – हमारे यहाँ पुराने सुती साड़ी-धोती और चादर को कई तह बनाकर फिर रंगीन धागों से सीकर एक कंबल सा बनाया जाता है । यह काम हमारे यहाँ महिलाँए जानती है । माँ को तो आज भी घर में फाइलों से समय मिले तो भुटिया सिलाई करने बैठ जाती है ।

खैरुन की माँ को भुटिया सिलाई का काम दिया गया । उसकी मेहनताना तय हूई । वो पुरे दिन बरामदे पर बैठकर काम की । उसके खाने के लिए अलग एल्युमिनियम की थाली । उसकी पहनी साड़ी की हालत देखकर जाते समय माँ एक पुरानी साड़ी उसे दे दी और पोटली बनाकर दे दी घर में पकाने के लिए चावल-दाल ।
माँ को उसका काम पसंद आया । काम करते समय उसने कह दिया कि वह माँ को उस दिन से दीदी कहकर पुकारेगी । उसकी साफगोई और सीधापन माँ को छु गई – और मेरी माँ की सबसे बड़ी कमजोरी और जीने का आधार भी यही है । माँ भी क्या करती बेचारी – उसने भी जो बुला लिया था न उस दिन भिखारिन को घर में । खैरुन की माँ ने भुटिया में
धागे क्या सीये – माँ के दिल में एकाध धागे जड़ दिए ।

अगले दिन उसे फिर बुलाया गया और वह करीब 4-5 बर्षों तक काम करती रही । जो भी घर का काम उसे कहा जाता लगन से करती रही । मेरे शैशव में अगर बिमला दीदी थी तो मेरे अनुज के लिए वह फुआ जैसी । गरीब होने से क्या हुआ उसकी सफाई पसंद के कारण वह सिर्फ रसोई के काम के सिवा काफी काम संभाल लेती थी ।

फिर बाद में खैरुन की माँ अब कम आती थी – सुनने में आया कि वह दुसरी महिलाओं के साथ किसी खान साहब के घर जाती है । वे लोग हमलोगों से ज्यादा मजुरी देते थे । हमें भी शिकायत नहीं रही – उसे दौ पैसे कहीं से ज्यादा मिल रहे थे । हाँ एक बात थी – कभी काम के लिए माँ उसे अगर कभी बुला लेती तो कभी ना नहीं करती ।

अपने बुते पर काफी कोशिशों के बाद वह जीत न पायी किस्मत से अपनी लड़ाई । उसके आँसु वर्षों पहले शायद भिखारी के चोले के अंदर ही दब गये थे । इसी बीच हमने देखा – उसे विधवा होते हूए । लकुआ से कमजोर उसका सौहर चल बसा । अभी वह कुछ संभल ही पाती की एक दिन सुनने में आया कि उसके छोटे बेटे के पैर में चोट लगा है । वह उसी भिखारन से खबर दिलवा भेजी । माँ ने देखने के लिए अमिय मामा को भेजा । सुनने मे आया उसके छोटे बेटे का बदन टेढ़ा हो रहा था फिर देखते-देखते 24 घंटे के अंदर टेटनस से उसका बेटा चल बसा ।

खैरुन माँ का वह पहला संतान है ना – सो उसे वर्षों से खैरुन की माँ के नाम से ही जानता आया हूँ । वह भुले भटके ही घर आता था वह बस नाम का रह गया – मेरी संस्मरण में नाम पाने के लिए ।

अब घर में बच रह गयी खैरुन की माँ और बेटी कलुआनी । इधर कलुआनी बड़ी हो गयी थी । उसकी शादी अकेली माँ के लिए सिर-दर्द था । उपर से झमेला दहेज का । देखने में कलुआनी बिलकुल काली, दुबली-पतली । और स्वभाव में कलुआनी स्वभाव से अपनी माँ से नहीं मिलती थी । वैसे खैरुन की माँ ने मेरी माँ से पहले ही कह दिया था कलुआनी की शादी के समय दान (दहेज) की तीन चीजों में कम से कम एक देकर मदद करे । दान की ये तीन चीजें उस स्तर के सब बेटी वालों को देना पड़ता है – साईकिल, घड़ी और बाजा मतलब रेडियो ।

कलुआनी जैसी भी थी – अपनी किस्मत लेकर जन्मी होगी । कितनी ही बार हमने सुनी कलुआनी के शादी के रिश्ते बनते और बिगड़ते । और हमारी आदत सी पड़ गयी थी – यह सब सुनते सुनते । पर एक दिन खैरुन की माँ खुशी-खुशी हमारे घर आयी और बताया माँ को कि कलुआनी की शादी पक्की हो गयी है । बुधवार को शादी तय हूई है । लड़का अपना रिक्सा चलाता है ।

पर उसकी खुशी के पीछे चिंता की रेखाएँ आज स्पष्ट थी । शादी-ब्याह में जब माँ को पिताजी का भी दायित्व, बेबस होकर निभाना पड़ता है तो – वह उसके लिए शायद काफी कष्टप्रद होता है । वह बता रही थी उस दिन जब वह दहेज के तीन समान के लिए कैसे सबके यहाँ सुबह से घुम रही थी । उसने कहा कि अली साहब घड़ी और खान साहब बाजा देना चाहते है । अब सबसे ज्यादा दाम वाला समान सिर्फ साईकिल बच गया है उसे आप दे देती तो….. कहते कहते वो मायूस हो गयी । शाम का समय था – बरामदे पर माँ ने उसे चाय-पिलाई और उससे पुछा कि साईकिल के लिए रुपये दे दूँ या साईकिल बनवा दूँ । उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि माँ यूँ हाँ कर देगी । उसने कहा साईकिल ही बनवा दीजिए । चुँकि उसके घर में पहले से साईकिल खरीदकर रखने का मतलब चोरी का डर था इसलिए , मुझे बुलाकर माँ समझा दी की मंगलवार को नई साईकिल बनवाकर बुधवार को शादी के दिन ही उसके घर में सुबह दे आऊँ । खैरुन की माँ आश्वस्त होकर चली गयी ।

मैनें पता किया उस समय 1500 रुपये में अच्छी हीरो रायल साईकिल बन जाएगी । मंगलवार के रोज मै दोपहर को साईकिल की दुकान पैदल पहूँचा – क्योंकि आते समय नयी साईकिल में आना था ना । बनवाने से पहले वहाँ जब कीमत जोड़ा जा रहा था दुकानदार ने बताया – पीछे का कैरियर कैसा चाहिए , सीट कवर, और दुसरे समान कैसे चाहिए । मैनें कहा – अच्छा वाला । फिर मैनें उसे समझाने के लिए कहा कि साईकिल दान में देना है । दुकान का स्टाफ हँसने लगा । वह कहने लगा – दान के साईकिल के लिए इतनी कीमत का समान क्यों लगा रहे है । उसने बताया कि लोग दान मे देने के लिए तो सस्ती वाली साईकिल बिना कैरियर, सीट कवर के ले जाते है । जिसे दान मिलेगा वह अपना कैरियर लगाएगा । उस समय इस बिन माँगी राय सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया था । मेरा मन किया की बहूत सारा भाषण दे दूँ उसको – पर कुछ न कहा । मैने वहीं बैठकर साईकिल बनवाले लगा । टायर लगवाया नाईलन का, साईकिल की मैचिंग का गद्दे वाला सीट कवर और पहिये के अंदर का रंगीन फुल । जब साईकिल तैयार हो गयी तो मैनें उसके हैंडिल में झालर लगवाया । और सामने हैंडिल पर प्लास्टिक के गुलाब फुल । मेरी मन माफ़िक साईकिल तैयार हो गयी थी । नयी साईकिल की धंटी टनाटन बजती थी ।

बुधवार के दिन शादी रात को होनी थी । माँ मुझे दोपहर से ही पहले भेज दी – उसके घर सुबह साईकिल पहूँच जाएगी तो उसे तस्ल्ली हो जाएगी और कुछ अगर काम-वाम की जरूरत पड़े तो सहायता हो जाएगी ।

मैं नयी साईकिल उठाकर खाला के घर पहूँच गया । शादी का शामियाना देखकर मुझे आश्चर्य हुआ । एक छोटा तिरपाल टंगा था बस । आँगन की लिपाई सुबह में हुई होगी पर कहीं पानी पर फिसलते हुए पदचिन्ह तो कहीं पड़े हैं मुढ़ी के दाने । और कहीं लोट रहा है करीब आठ-दस महीने का नंगा बच्चा । उस गाँव में बुरके का प्रचलन नहीं था पर महिलाँए आँगन में सिर ढँककर काम कर रही थी । मैं नई साईकिल को सही जगह में रखने की मैं सोच ही रहा था । गाँव के नंग-धरंग बच्चे मेरे साईकिल के चारों ओर खड़े थे । एक बच्चा हैंडिल का झालर छुता तो दुसरा बच्चा उसे दुबारा छुते हूए पहले को फटकार लगाता ।

खैरुन की मां मेरे लिए क्या करे ना करे – परेशान सी हो गयी । क्या खाने को दे मुझे उसे समझ में नहीं आ रहा था । उसने चुनरी के कोने से गाँठ खोलकर पाँच रुपये का नोट निकालकर एक गाँव के बड़े लड़के को दी कि – जाकर मिठाई और नमकीन ले आए ।

लड़का थोड़ी देर के बाद लौटा – अब मेरे लिए स्टील का प्लेट तो खाला के घर का था यह तो पता नही पर उसके पास अभी चम्मच न था । बगलवाली से चम्मच माँग कर ले आयी । एक सस्ती लकड़ी का मेज और एक लकड़ी की कुर्सी भी मंगवा ली । मिठाई में छेना कम पर मैदा अधिक था – पर मुझे वह अच्छी लगी थी । उस नमकीन का स्वाद आजतक अंकल चिप्स में भी नहीं मिला । लेकिन उस नमकीन का नमक खाकर पता नहीं मुझे उसके प्रति कृतज्ञता भार बोध होने लगा । सोचा शादी का घर है कुछ करूँ – और कलुआनी बहन भी तो थी ।

मैं आँगन से बाहर खड़ा-खड़ा सब देख रहा था । वहाँ व्यवस्था में लगे किशोर लड़को से बात करने के बाद लगा कि रंगीन कागज के झालर काटने बाकी हैं । और क्या था – मैनें खैरुन की माँ से मांग ली रंगीन कागज । पर कैंची का पता नहीं – बगल वाले के यहाँ से एक मँगवायी तो पुरी तरह से भोथी । एक तो सस्ती वाली कागज फिर पानी काटने वाले उस कैंची से महीन झालर की डियाजन भी नहीं बनती थी । एकाध डिजाईन बनाने के बाद एक बेहतर कैंची आयी और हमनें फिर सारे झालर बनाये । लड़के कहीं से आटे की लेई बनाकर लाए और जहाँ- जहाँ बन पड़ा चिपकाते गये । अब लग रहा था – उस घर में शादी होने वाली है ।

करीब तीन बज गये थे और मुझे पैदल घर आना था । दोपहर को वहाँ भात खाने की व्यवस्था की न कोई संभावना थी और न ही कोई इच्छा भी हो रही थी । खैरुन की माँ को साईकिल की चाभी ठीक से रखने के लिए कहा और मैं वापस घर आ गया । शादी के लिए रात में रहना हमलोगों के लिए संभव न था और शायद रहने से खैरुन की माँ को हमलोगों के खाने के लिए कुछ अलग व्यवस्था करनी पड़ती ।

घर आकर खाना खाया और रात में माँ को सब कहानी सुनाया । उसे खुशी हूई ।

शादी के कई दिन के बाद खैरुन की माँ फिर से काम पर आने लगी । अब उसकी उम्र काम करने सी नहीं थी – माँ कहती की खाना खाकर वह बस थोड़ा चावल साफ कर दे वही काफी है । पर पता नहीं उसकी आदत वही रही । खोज-खोजकर काम निकाल लेती ।

एक दिन खैरुन की माँ बात कम रही थी । पुछा मां नें – उसकी तबीयत ठीक तो है , कलुआनी ठीक तो है । उसने कहा सब ठीक है । पर वह रोक न सकी खुद को । आँखों में आँसु भरकर बोल दी – साईकिल चोरी हो गयी है कलुआनी के ससुराल में । साईकिल चोरी – सुनकर मेरा तो हाथ-पैर जम गया । उसने बताया कुछ दिन पहले रेडियो – घड़ी चोरी हो गयी थी और आज रात साईकिल । हमलोगों ने पुछा कैसे । वह कह रही थी – उसका जमाई बता रहा था रात में कैसे हूई है पता नहीं ।

अब मुझे साईकिल की दुकान वाले आदमी की याद आ रही थी – “दान के साईकिल के लिए इतनी कीमत का समान क्यों लगा रहे है …… दान मे देने के लिए तो सस्ती वाली साईकिल बिना कैरियर, सीट कवर के ले जाते है । ”

माँ कलुआनी के ससुराल वालों को एकाध भला-बुरा सुनाकर उसे ढाँढस बँधायी । उसके हताश चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था टुट सी गयी लता माँ के सुखे टहनी से सहारा माँग रही हो ।

साईकिल चली गयी – पर खैरुन की माँ हमेशा की तरह उसी तरह रही । शायद ईश्वर उसकी सहनशीलता को देखकर ही उसे “खैरुन की माँ” बनाकर यहाँ भेजी । घर जाने से कोशिश करता हूँ एक बार मौका निकालकर उसे देख आऊँ । मुझे अचानक अपने घर पर देखकर खुशी से हमेशा उसके मुँह से निकलती है – “अल्लाह रे बेटा । कसे करे ओसलो ( कैसे आना हुआ ) ” ।

वह मुसलमान या “किस्मत की भिखारी” नहीं – मेरी खाला है।

एक है मेरी बिमला दीदी

उस दिन 15 साल के बाद, करीब दिन के दस बजे, बहनों से राखी बँधवाकर अपनी गोरी, छोटी नाकवाली बिमला दीदी का याद आ रही थी । माँ से मैने कहा कि बिमला दीदी के यहाँ जाने का मन कर रहा है । माँ को आश्चर्य और खुशी दोनो हूई । उनसे पुछकर मैनें जल्दी से तैयार हो गया । जब जाने लगा तो माँ कहने लगी – रास्ते में मिठाई खरीद लेना । माँ मुझे एक राखी साथ में ले जाने को कही । मुझे अटपटा सा लगा । वह समझाने लगी – कि मैं अचानक जा रहा हूँ ना उसके गाँव में राखी नहीं भी मिल सकती है । हमारे घर पर कुछ राखियाँ हरेक बार बच जाती है – माँ उसमें से एक राखी चुनकर मेरे पाकेट में डाल दी ।

बिमला दीदी वह कोई 10-12 साल की रही होगी तब उसे उसकी, माँ हमारे घर में रख गयी थी । मैनें उसी के पास घुटने टेकना, और दूध-भात खाना सीखा था । फिर कुछ बरसों बाद जब मैं स्कुल जाने लगा था तो उसकी माँ फिर उसे हमारे यहाँ रख गयी थी – ताकि हमलोग शादी के लायक लड़का खोजकर शादी का प्रबंध कर सके । उसकी माँ किसी तरह से छोटी सी अपनी खेती और लोगों के यहाँ खेतों में मजदूरी करती थी ।

मैनें साईकिल उठाई और चल पड़ा बेलगाछी । वैसे उस दिन सुबह भी बारिश हूई थी और आकाश में मेघ थे – सो छाता मैनें ले लिया  था। 15 साल के बाद भी वहाँ का सर्पीला रास्ता मुझे याद है । दो चीजें मैं जल्दी नहीं भुलता – चेहरे और रास्ते । पर बेलगाछी में कहाँ रहती है बिमला दीदी पता नहीं । पर खोज लूँगा मुझे विश्वास था । रास्ते में मिठाई खरीदी, आधा किलो रसगुल्ले – एक पालिथीन में । पालिथीन को डाल दिया साईकिल के हैंडिल पर । आधे रास्ते मैं पहूँचा था कि बारिश शुरू हो गयी । एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया ।

अपनी मिठाई की पालिथीन ठीक कर ली । रास्ते में आस-पास गाँव भी नहीं दिख रहा था । कुछ देर रुकने के बाद मुझे लगा कि मैं समय बरबाद कर रहा हूँ । छाता खोलकर एक हाथ से साईकिल पकड़कर धीरे-धीरे साईकिल चलाने लगा । शायद इस तरह से कुछ दूर और निकल जाऊँ ।

रास्ते में कहीं कहीं पानी जमा हूआ था और उस रास्ते के मरम्मत की सुध किसी को नहीं रहती होगी । हाँ कहीं-कहीं कंक्रीट पत्थर के ढेर नजर आ जाते थे । अचानक रास्ते में किसी पत्थर पर ठोकर लगी और मैंनें छाता नीचे कर साईकिल संभालने की कोशिश की । संभल गया मैं, पर देखा मिठाई की पालिथीन फट गयी थी । उससे रस टपक रहा था । अब मिठाई को हैंडिल पर टाँगकर रखना संभव न था । अब उपर से बारिश एक हाथ में मिठाई की फटी पालिथीन, जिसे अब बस एक ठोकर लगी तो सारी मिठाई सड़क पर बिखर जाती । अब शहर से जा रहे मेरे से मेहमान का हालत क्या हूई होगी – समझ लिजीए ।

मुझे अब एक पालिथीन की जरूरत थी । फटे मिठाई की पालिथीन को मैने बायें हाथ से अपने सीने से लगाकर दुसरे हाथ से साईकिल चला रहा था । शायद एक किलोमीटर गया ही होऊँगा कि एक गाँव सा दिख रहा था । वहाँ तक पहूँचने से पहले पालिथीन के अंदर कई मिठाई टुट चुके थे । वह गाँव बेलगाछी नहीं था पर वहाँ रास्ते में एक पंसारी का दुकान दिखा । मैनें उनसे एक पालिथीन मांगी । दुकानदार मेरी फटी पालिथीन देखकर परिस्थिति समझ गया । उसने एक पालिथीन दी – और भी पतली सी । मैनें सोचा कि उनसे पुछा बेलगाछी कितना दूर है । 2 किलोमीटर – उसने कहा । मेरा मन हुआ एक और पालिथीन माँग लूँ । और बिना कोई सामान खरीदे माँग भी लिया । उसे मैनें सोचा कि उसे एकाध रुपये दे दूँ , फिर लगा कि कहीं रुपये देने से उसके स्वाभिमान को ठोकर न लगे ।

बारिश भी अब धीमी हो गई थी । लगता था धुप भी निकले वाला था । मैं अब पालिथीन को अपनी अँगुलियों में लटकाकर फिर दोनों हाथों से साईकिल चलाने लगा । मैं चलता रहा, रास्ते में कुछ लोग मिलते तो पुछ लेता और कितनी दूर है बेलगाछी ।

विमला दीदी माँ की प्यारी थी । किसी पर गुस्सा कैसे करते हैं – विमला दीदी को पता नहीं था । 1986 – विमला दीदी की शादी हो गयी । हमलोग पुरा परिवार जाकर उसकी शादी का प्रबंध किये थे । पालकी में उसकी विदाई के समय मैं भी रोया था – हाँ आँसु नहीं आये थे, जैसे अपनी बहन की विदाई में आई ।

पर मुझे पता था कि जीजाजी किसी बेकरी में काम करते थे । हमारे शहर से करीब 5 किलोमीटर दूर बेलगाछी गाँव में शादी हूई थी उसकी । और उसकी शादी के बाद बहुभात में मैं उसके गाँव मामाजी के साथ गया था उसके बहूभात के दिन । दोनो की जोड़ी दो सीधे बैल की जोड़ी थी ।

ऐसी ही बातें सोचते सोचते मैं पहूँच गया बेलगाछी के करीब । रमजान नदी के किनारे बेलगाछी का गाँव वही था – दिल मेरा पुरा गवाह दे रहा था । पर अब गाँव में पहूँचकर किससे कैसे पूछेंगे – बिमला दीदी के बारे में पता नहीं । वह मुझे पहचान पाएगी भी नहीं या मैं उसे पहचान पाऊँगा भी कि नहीं ।

अगर गाँव में प्रवेश से पहले किसी से बिमला दीदी के बारे में पुछ लूँ तो अच्छा रहेगा । मैं आगे बढ़ गया । दूर से दिख रहा था एक बट वृक्ष के नीचे कुछ महिलाएँ बैठी थी । निकट गया तो पता चला वो खेत के मजदूर है । पास में धान की रोपनी हो रही है । शायद दोपहर के खाने के लिए बैठी है । मै साईकिल से उतर कर उनकी ओर जाने लगा । सब महिलाएँ मेरी ओर देखने लगी । कैसे पूछूँ और किससे पूछूँ – एक अजीब सा उधेरबुन में था मैं । उनके सामने मुझे ऐसा लग रहा था कि सब महिलाओं के जिज्ञासु चेहरे मुझसे स्वाभाविक रूप से पुछ रहे थे – आप किसे खोज रहे हैं । मेरी नजरें बीच में बैठी एक महिला पर अटक गयी । गोरी सी, छोटी सी नाक । और उसकी आँखे मुझ पर । मुझे लगा कि वह बिमला दीदी जैसी लगती है । मैनें अपने को धिक्कारा – 15 साल के बाद ऐसे किसी मजदूर महिला के साथ बिमला दीदी को कैसे तुलना कर सकता हूँ । पर वह महिला मेरे तरफ देखे जा रही थी । मुझे लगा कि उन्हीं से पुछ लूँ ।वो अपने बगलवाली महिला से कुछ बात करने लगी – फिर अचानक कह उठी हमारे देशी भाषा में – “प्रेम नाकी” ( प्रेम हो क्या ) ।

“बिमला दीदी” – मैनें भी पुकार लिया । “भाई रे – भाई” – वह उठकर सामने आने लगी । सारे औरतें हम दोनों की और देखने लगी । मैनें साईकिल को स्टैंड लगाकर आगे बढ़कर उसके पैर छूए । वह बाकी महिलाओं को कहने लगी – जिस भाई की बात वह आज उनसे कर रही थी – वह मैं ही था । आज वह किसी को राखी नहीं पहनाई थी । कई साल पहले वह राखी लेकर हमारे घर आई थी और हम भाईयों को घर में नहीं पाकर चली गयी थी । वह दूसरे मजदूरों को कह दी कि वह घर जा रही है – वह अब नहीं आएगी । मैनें मिठाई की पालिथीन उसके हाथ में थमा दी ।

सब महिलाओं के चेहरे पर आश्चर्य का भाव और विमला दीदी के लिए खुशी का सागर । मैनें पुछा, वह मुझे कैसे पहचानी । उसने सरल शब्दों में मुझे चुप कर दिया – “जो मेरे सामने घुटने टेकने सीखा, खाना सीखा, उसे मैं नहीं पहचान सकूँ” । मैनें पुछा – वह यहाँ खेतों में क्या कर रही थी , चुकि मेरा विश्वास था कि वह शायद मजदूरों कि निगरानी के लिए आयी होगी । उसने बतायी – आजकल थोड़ा काम मिला है, कई दिन से वही कर रही थी । मेरी बिमला दीदी – खेत की मजदूर । जीजाजी किसी मिठाई के दुकान में आजकल काम करते हैं ।

मैं उसके साथ उसके घर गया । देखा उसका दो घर , कच्चा सा । एक रसोईघर, कोने में । उसने सारा हाल कह सुनाया कैसे उसके दिन बीते । बीच में बगल की एक लड़की को बुला लाई खाना बनाने के लिए । और मुझे नास्ता परोसा – भूजे हूए चुरा दुकान से अभी खरीदी डालमोट और आलु की महीन भुजिया ।

और कह गयी बेटी को आँगन लेपने और खुद निकल गयी गाँव की और – अगर मैं गलत ना था तो कुछ खरीदने । वापस आकर नहाने गयी – और नयी सुती साड़ी पहनी, शायद शादी-विवाह में एकाध बार पहनी होगी और पुरानी मैंचिंग की ब्लाउज । बीच बीच में रसोई में जाकर कुछ कह आती । उसके आँगन में आज मेहमान आया है ।

उसने राखी की थाली सजाई – बरामदे पर – दुब, धान, पानी का लोटा – उसमे आम का पल्लव । टीका के लिए चंदन तो था नहीं थोड़ी सी कहीं की रखी अबीर । और थाली में एक कोने पर पड़ी थी – दीदी का खरीदा हुआ राखी – छोटा सा – शायद दो रुपये का होगा – फोम पर चमचमाते प्लास्टिक और लटकते नन्हें से धागे – पतले से । बैठने के लिए लकड़ी की पिढि़या । मैं बैठ गया । मुझे याद थी कि मेरा पाकेट में घर से लायी राखी पड़ी है – पर मेरा मन हुआ कि मैं वही राखी पहनूँ । सस्ती वाली दीदी की । धान-दूब से मेरा आदर हुआ । हमारे यहाँ शुभ मुहूर्त में महिलाँए उलू ध्वनि देते है । उसने भी दी । अब वह राखी को उठाकर उलट पलट ही रही थी और बता रही थी – उसके गाँव में एक ही दुकान में राखी मिली । राखी के धागे इतने छोटे थे कि मेरी कलाई मे नहीं बँधते । वह अफसोस कर रही थी । मेरा मन नहीं माना – मैनें बता दिया कि माँ ने एक राखी भेजी है और निकालकर उसे दिखाया । शहर की डिजाईनर राखियाँ – उसके आँखों में एक चमक सी छा गयी । पर मैनें कहा कि, दीदी मुझे आप अपनी वाली राखी पहनाओ । लेकिन अच्छी राखी पाकर, वह अब अपनी राखी को अलगकर रख दी । वह कहने लगी, मामी ( मेरी माँ को वह मामी कहती है ) कितनी अच्छी है । मैं हमेशा कि तरह मान गया, कहानियों और कविताओं से परे महिलाओँ की कुछ भावनाएँ महिलाँए ही समझती है ।

हाँ एक कटोरे में मिठाई थी – मेरा लाई हूई । मुझे वह मिठाई खिलाने लगी – और अपने मुँह की अधकटी मिठाई मैनें भी उसे खिलाई । मैनें थाली में रख दिये सौ रुपये का नोट । शाय़द दो दिन की मजदूरी सी होगी । पर वह अधिकार से बोल पड़ी – भाई अगले बार साड़ी लुँगी ।

अब जब तक खाना पक रहा था । वह मुझे गाँव में सब संबंधी के घर घुमाने ले गयी । और बीच-बीच में बताती जाती – कैसे लोगों ने जमीन बँटवारे के समय जीजाजी के साथ बेमानी की । पर आश्चर्य मुझे लगा कि सबके साथ उसके व्यवहार अच्छे थे । सारे जगह पर वह भाई की बड़ाई करती और शो-मेन जैसा पेश करती जाती । चाय का पेशकश मुझसे पहले वही ठुकरा देती – पर वह अंडे के बारे में सबसे पुछ लेती । गाँव में अंडे दुसरों के घरों से खरदते हैं। अंतिम मे एक घर पर चाय के लिए हां कह दी । और वहाँ से कुछ अंडे भी ले ली ।

खाना बन गया था -मेहमान को अकेले नहीं खिलाना चाहिए इसलिए साथ में बैठा था उसका बेटा जो छठी में पढ़ता था । परोसा गया – मोटा चावल का भात, लकड़ी के चुल्हें पर पका मुँग का दाल, भिंडी की भुजिया , पटुए का साग, आलु-परवल की तरकारी और स्पेशल आईटम – अंडे का आमलेट । फिर भोजन समाप्ति पर वही मेरी वाली मिठाई फिर से ।
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आज अभी रक्षा-बँधन का बर्ह्ममुहूर्त है । सुरज उगने में कई घंटे और बाकी है – पर बिमला दीदी के लिए यह रतजगा छोटा संस्मरण भी कम है । कल आफिस की कामों में उसे याद कर पाऊँ या ना कर पाऊँ, पर मुझे पता है -फिर कल दिन में शायद धान की खेतों में बहना – भाई को याद करेगी ।

कृष्णसखा

कहीं नन्हें फुलों सा,
और नीली कलियों सा,
हाथों से सहेजकर,
हवाओं से बचाकर,
संबंधों को सहेजा है मैनें ।

मीठे स्वपनों सा,
अठखेली गीतों सा,
छिप गुनगुनाकर,
उसी हवा को सुनाकर,
सखाओं संग गाया है मैनें ।

जब कभी टुटे माला सा,
बिखरे मोती फुलों सा,
अनुभूति की डोर सजाकर,
फिर एक माला में बुनकर,
गोकुल में पहनाया है मैनें ।

अनूप जी के लिए

प्रिय अनूप जी,

आपका लेख पढ़ा । ऐसे
मैनें वहाँ टिप्पणी तो डाल दी है पर कुछ और लिखना चाहता हूँ ।

आप माने न माने पर एक बात तो सच है भावनाएँ वाई-फाई (wi-fi) होती हैं। इंटरनेट तो बस एक माध्यम हैं । एक तरफ आप किसी खास विषय पर सोचते हैं तो आपका दिल से नजदीकी मित्र आपको याद करता है और उसी विषय पर कुछ पुछ बैठता है । आज मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ ।

आज कुछ तो गाओ तुम साजन,
क्यों आज सुना तेरा फिर आँगन ।
चुप क्यों हो फिर तुम, यूँ मौन धरे,
तू गाता चल, ……

आज जब मैं ये पंक्तियाँ टाईप कर ही रहा था तो जीमेल पर जीतू जी का चाट मैसेज कुछ यूँ टपक पड़ा ।

जीतू: http://hindini.com/fursatiya/?p=312 tumko yaad kiya ja raha hai

चूँकि यह लिंक फुरसतिया से संबंधित था और वहाँ याद किये जाने कि बात हो रही थी तो मुझे पक्का लगा कि मेरी खिचाई हुई होगी मस्त । खैर एक क्लिक में रिश्ते बनने-बिगड़ने वाली इंटरनेट की दुनिया में मैंने भी बस क्लिक ही किया था कि मेरा पुरा दिमाग री-बुट हो गया ।

सच पुछिए तो उस समय कविता लिखने का मुड तो थोड़ा अजीब सा तो हूआ पर शुभ आश्चर्य हुआ कि मेरे कविता की पंक्तियों और वहाँ पर आपके लेख में काफी समानता ही दिखी । कविता में, मैं सोच रहा था एक ऐसे आँगन के बारे में – जो अभी शांत सा है – और उसकी चुप्पी शायद मुझे खलती है । और बस ऐसा ही दुसरी तरफ ऐसा ही मेरे लिए कोई सोच रहा है – मुझे विश्वास नहीं हो रहा था ।

हाँ तो अनूप भैया, आपका स्नेह निश्छल है । मैं वापस आ गया हिंदी चिट्ठाकारी में । जहाँ हाय – हैलो की सभ्यता से दूर एकदम गाँव का चौपाल, जहाँ कहीं कोई खैनी दबाकर दाँव ठोकता है तो कहीं किसी को पान चबाकर, चुपके से पीक फेंकने की कला भी आती है । तकनीकी भैया लोग कहीं नारद को हाई-टेक कर रहे हैं तो कहीं देबुदा निरंतर सबकी बातें करना चाहते हैं । रविजी और देबुदा के देशी दिल का पक्का लगन काबिले तारिफ है । भुल नहीं सकता कि जब भी जरुरत पड़ी इन्होनें सहायता की है मेरी ।

कहीं मैनें पूर्वी को खोया तो लगा – क्या मासुम रिश्ते भी भ्रम से हैं – हाय रे विधि का विधान । तो कहीं निराश मन को जगाकर कंधो का मजबुत करने की बात आयी, उन पर खेलने वाले जो आ गये है – मैं चाचाजी , मामाजी या यूँ कहें इंगलिश में अंकलजी बन गया हूँ ना ।

हाँ तो सच में मैं खोया था । रिश्ते खुद से बना रहा था । कुछ बातें दुसरों से समझ रहा था तो कुछ खुद को समझा रहा था । काफी संघर्षपूर्ण रहे आपसे बिछड़े दिन । लेकिन आज मुझे भी सुनने के लिए आप सब साथ हैं और क्या चाहिए मुझे । मै आपके साथ चलता जाऊँगा ।

आपका,
अधकटी पेंसिलवाला ।

सेल्समेन

आज मेरे लिए हजार रुपये खर्च करना कितना महत्व रखता है , शाय़द ठीक से पता नहीं, पर उन दिनों हजार रुपये कमाना कुछ जायदा ही मायने रखता था । दीदी की शादी के आसपास, घर की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी । और हम दोनों भाईयों के पढ़ाई का खर्चा, हमारे लिए नये कंप्युटर, आदि – आदि । और छोटी बहन की पढ़ाई चल ही रही थी और उसकी शादी के लिए थोड़ी-बहूत फिक्सड डिपोजिट को निकालना बाबूजी और माँ जैसे सरकारी कर्मचारियों के लिए मुश्किल सा था । पर हिसाब से चलना अब भी मुझे सीखना है, सच पुछिये तो आज इतना कमाकर भी मेरा हिसाब डाँवाडोल हो जाता है ।

हाँ तो सुनाते हैं, सेल्समेन की कहानी – बिना किसी भी फिक्शन के, कुछ बीती बातें जो मुझे याद आती है । या यूं कहें तो अच्छा रहेगा – एक सेल्सवुमेन की कहानी ।

आर्थिक तंगी के उन दिनों मेरे मौसेरे भाई ने सिलीगुड़ी से आते समय माँ को दिखा दिया कुछ स्कीम – नेटवर्किंग मार्केटिंग का – मोदीकेयर । साबुन, टुथपेस्ट से लेकर बच्चों के खिलौने तक सब कुछ बेचकर फायदा कमाया जा सकता था । मुनाफा करीब 15 प्रतिशत । आधा या पुरा पता नहीं कितना सोचा माँ ने, प र कुछ सोचकर ही करीब 3 हजार रुपये देकर माँ ले ली एक एजेंसी – घर-घर घुमकर बेचने के लिए । साथ में खरीदा माल करीब 2 हजार रुपये का ।

मैं सिलीगुड़ी मे पढ़ता था उस समय । सिलीगुड़ी से हरेक महीने मैं उनका माल ले आता था । हरेक महीने जब घर आता था तब सुनता वह कैसे किनके यहाँ- क्या बेच रही है । सबसे ज्यादा बिकती थी – टुथपेस्ट । करीब 56 रुपये का 100 ग्राम – ग्राहक से कहना पड़ता था – थोड़ा से ही काम चल जाता था । और दूसरी और महंगी थी पर बिकती थी – टी ट्री आयल और मास्चराजिंग क्रीम – चेहरे की धब्बे को ठीक करने के लिए । खरीद लेती थी – घरेलु औरेंते भी – अपने बचत के पैसे से ।

“दीदी जी इसबार 3 सौ रखिये ना – अगले महीने सौ रुपये दे दूँगी ।” और हाँ वह आँटीजी दुआएँ देती रहती माँ को – उसके चेहरे के काले धब्बे पता नहीं – महंगे प्रसाधन व्यवहार से या कुछ खुद के ख्याल रखने से साफ हो रहे थे ।

शाम को कई दिन बेचकर मुहल्ले की ग्राहकों से गपशप करके वह करीब सात बजे घर आती थी । एक रात जब मैं उनकी अनबिकी समानों को देख रहा था – देखा बार-बार पैकेट खोलते बंद करते टी ट्री आयल और मास्चराजिंग क्रीम का पैकेट पुरानी सी लग रही थी । कई पैकेट बिक गये थे पर शायद पुरानी सी पैकेट लगने के कारण उसे कोई खरीदता भी नहीं होगा । सर उठाकर देखता तो दिखती – उनकी अनबिकी चिन्ताएँ चेहरे पर, गाल पर काले से धब्बे बन आए थे । उस समय हजारों रुपये के बेतन मिलते थे पर उन्होनें सौ रुपये की भी शायद क्रीम कभी खरीदी होगी खुद से – पता नहीं । कंजुसी नहीं – पर उसी बचत के पैसों से सब कुछ – सिर छिपाने लायक एक मकान, पेट भरने लायक खेती की जमीन – और कहना चाहूँगा कि सबको तैयार करने में बाबुजी की बराबर की हिस्सेदारी । जब क्रीम की बात आयी तो कह ही दूँ कि मेरी दीदी और बहन को शहनाज हूसैन की क्रीम ही सुट करता था – और वे उस समय बचत करके, बाबुजी का खुशामद करके भी पैसों का जुगार कर भी लेती थी ।

पर उस दिन न कमानेवाले मुझ बेटे की हिम्मत नहीं होती कि कहूँ – “माँ तुम खुद के लिए एक मोदीकेयर वाला स्कीन क्रीम युज क्यों नहीं करती” । पर उस रात मेरा मन नहीं माना – अपने तरीके से कह ही दिया – “माँ इतना महँगा क्रीम ऐसे पुराने पैकेट मैं कौन खरीदेगा ? और देखो ना – इसका ढक्कन का स्टीकर भी फट सा रहा हैं । और कई महीने में इसका इफ्फेक्ट भी कम हो जाएगा – फिर खरीदने वाले को भी फायदा नहीं होगा । जब लोगों को फायदा होता है तो आप भी ये वाला युज करके देखो ना – आपको भी चेहरे के लिए कुछ चाहिए ना ।”

सच पुछिये तो सबको उस क्रीम का गुण बताते-बताते मन तो उनका भी करता होगा कि एक बार वह भी इस्तेमाल करे । पर डब्बेवाली “अफगान क्रीम” लगाकर पली-बढ़ी मेरी माँ की इतनी हिम्मत न हो पाती 400 रुपये वाली क्रीम की – जो बात हम दोनों समझते थे ।

हरेक महीने सामान बेचकर फायदा करीब आठ सौ – हजार रुपये की हो जाती थी । कहती थी – सब्जी का तो खर्च निकल आता है ना ।

छोटे शहरों में बिक्री के लिए ट्राई करने के लिए जो भी खरीदे – सब नहीं बिकती थी । नहीं बिकी – उनकी रेजर सेट – तो मुझे देने लगी । नहीं बिकी उनकी किताबों की सेट – नहीं बिकी उनकी महँगी नेलपालिश की रेंज और कुछ साफ्ट टाएज खिलौने । एक रैबिट वाला साफ्ट टाए तो अभी तक पैकेट में ही है – कहती है – पोते को देगी । स्कुल के बाद शाम को और रविवार की शाम – करीब 4 से 5 किलो बजन का बैग लेकर घर-घर घुमती – पैसों के लिए और हाँ उसे शायद ऐसा करके संतोष भी होती । उनकी परेशानी और होने वाली आय को देखकर बाबुजी मना करते रहते – पर पता नहीं क्या-क्या करना चाहती – मेरी माँ । वैसे उनके बैग में भी एक दुकान था – आफिस और स्कुल की मैडमों जैसी कई नियमित खरीददार थी उसकी ।

एक बार करीब सप्ताह भर की छुट्टियों में मैं घर पर था । वैसे कई बार मैनें भी उनसे कहा कि “माँ कुछ समान दो – मैं बेच आता हूँ “। पर मेरे साथ सबसे बड़ी परेशानी थी कि बाहर पढ़ाई-लिखाई होने से अपने मुहल्ले से बाहर ज्यादा लोग मुझे जानते भी नहीं । पर मेरी इच्छा को देखकर माँ ने कह दिया कि -“अच्छा बगल के आजाद पब्लिक स्कुल में प्रिसिंपल ने रुचि दिखाई थी – उनके मैडम ने कुछ सामान खरीदी भी थी – उनके पास कुछ सामान दिखा आओ। होस्टल के बच्चों के लिए कुछ पेंटिंग की किताब ले लो । “

नास्ता करके समान उनके कंपनी वाले बैग भरकर मैं चल दिया । रविवार का था वह दिन । वहाँ प्रिसिंपल की उम्र करीब रही होगी कोई 35 साल । साथ मे थे भाइस-प्रिसिंपल । मैनें अपना परिचय दिया – “दीदी जी जो उस दिन आयी थी – कुछ समान दिखाने – मैं उनका बेटा हूँ ।” मैं दिखाने लगा हैडवास लिक्विड से लेकर बाडी स्क्रबर और आफ्टर सेव लोशन और एडुकेशेनल कैसेट ।

पता नहीं कैसे सीखा – पर मुझे प्रोडक्ट समझाना आता है । अंदाजा लगाया उनकी जरुरतों को जानने का । समझाया उनको जैसे कि ये सारे उनके अपने ही समान हैं । भाई साहब कुछ सामान लेकर बेगम को दिखाने घर में ले गये । उनका परिवार वहीं कैंपस में रहता था । करीब छः सौ रुपये के सामान खरीदे दोनों ने मिलकर । अदाजा नहीं था कि इतना खरीद लेंगे – पर मेरे लिए उस समय भगवान से कहीं कम नहीं थे वे ।

भाइस – प्रिसिंपल ने पुछ ही डाला – “अच्छा भाई साहब आप वैसे क्या करते है ?”

” एम सी ए में पढ़ता हूँ । “

“तो फिर यह सब …. ?”

“बस इगेंजमेंट, और आपकी सेवा । “

वे हँसने लगे । भाइस – प्रिसिंपल जो अलिगढ़ युनिभर्सिटी से इंजिनियरिंग करके शिक्षण में समर्पित थे – मेरे अब मित्र बन गये ।

“एम बी ए कर लें – आपके लिए सुट करेगा ” – वो राय दे रहे थे ।

पर इधर मेरा भार कम नहीं हो रहा था बैग का – बिन बिके किताबों के चलते । पिसिंपल साहब बच्चों के लिए नहीं खरीद पायेंगे – पेटिंग की किताबें – 20 – 30 और 50 रुपये वाली – फंड नहीं हैं उतने उनकी । पर अनुमति मिल गयी – बच्चों से मिलने की – अगर वो खरीद सकें खुद से ।

मैं बैग लेकर हास्टल के बरामदे में पैर लटकाकर बैठ गया । नये स्कुल के हास्टल में उस समय करीब 50 बच्चें रहे होगें । रंगीन पेंटिंग के किताब ले-लेकर बच्चे देखने लगे । आज भी नहीं भुल पाता हूँ की “अलादीन” की पेंटिंग किताबें सबको पसंद थे । एक गोरा बच्चा – अच्छे घर का लगता था – ने खरीदी एक 50 रुपये की किताब । वैसै बच्चों की भीड़ देखकर सोचा कि कम से कम दस तो बिकेंगे ही । पर खरीदने वाले कुल बच्चे थे – सिर्फ तीन । तिस पर भी एक बच्चे के दो रुपये कम हो रहे थे ।

बच्चों नें बताया कि उनके अभिभावक इधर बहुत दिनों से नहीं आये थे । 30 तारीख को आयेंगे सबके अभिभावक – उस दिन छुट्टी होने वाली है । सबके मुँह से एक ही बात – अंकल आप 30 को आईए ना – मेरे अब्बा आयेंगे – मेरे पापा आयेंगे । मेरे भैया आऐंगे – मैं पजल वाली बुक खरीदूँगा । और उनके हास्टल में ज्यादा पैसे भी रखने नहीं दिये जाते हैं । जो कुछ था – खर्चा हो गया था सबका।

किताबों को हाथों में पकड़े हूए, उन लोगों का चेहरा देखकर मन तो करता था कि – सब किताबें उनकों दे आऊँ – बाद में आकर पैसे ले लुँगा । पर नहीं खरीदने वाले बच्चों से एक – एक करके किताब लेकर मै बैग में डाल लिया – किताबें नहीं बिकी फिर । मैं वापस चल पड़ा घर की ओर ।

घर पहूँचकर माँ को हिसाब दे दिया – बता दिया कि 30 को बच्चे फिर बुला रहे हैं । 30 तारीख तक मुझे घर पे रहना था । करीब 4 सौ रुपये की किताबें होगी – जो बेचनी थी हमें । बीच में प्रिसिंपल सर की मैडम को एक क्रीम भी दे आयी था मैं । उस दिन फिर बच्चों ने मुझे पहचान लिया और घेर लिया और सबने फिर याद दिलाया कि – 30 तारीख को आईएगा अंकल ।

इधर घर पर हम लोग आपस मे मिला चुके थे कि मैं घर पे ना भी रहूं तो माँ किताबें बेच आएगी उस दिन वहाँ ।

घर पर उस समय कुछ जरुरी काम चल रहे थे और एक शाम हम लोग बरामदे में बैठे थे और याद आयी किताबों को बेचने की बात । मैनें माँ से पुछा – “माँ… आज तारीख क्या है !”

और हम दोनों एक दुसरे को देख रहे थे । वह 30 तारीख की शाम थी । बाहर अँधेरा होने वाला था ।

हम दोनों बरामदे से उठकर घर में आ गये । रैक पर रखी हूई थी – किताबों का अलग से रखा गया पैकेट जो हमने उस दिन के लिए अलग से बाँधकर रखा था । हमें दुख नहीं था कि हमारी किताब नहीं बिकी ।

आज हम दोनों चुपचाप से थे कि आज बच्चों की छुट्टी हो गयी । आज सुबह से सब आस लगाकर बैठे रहे होंगे । इतने दिन से आशा लगाकर आज बिना किताब खरीदे ही घर चले गये होगें ।