Archive for the ‘जिदंगी की नैया’ Category
एक है मेरी बिमला दीदी
उस दिन 15 साल के बाद, करीब दिन के दस बजे, बहनों से राखी बँधवाकर अपनी गोरी, छोटी नाकवाली बिमला दीदी का याद आ रही थी । माँ से मैने कहा कि बिमला दीदी के यहाँ जाने का मन कर रहा है । माँ को आश्चर्य और खुशी दोनो हूई । उनसे पुछकर मैनें जल्दी से तैयार हो गया । जब जाने लगा तो माँ कहने लगी – रास्ते में मिठाई खरीद लेना । माँ मुझे एक राखी साथ में ले जाने को कही । मुझे अटपटा सा लगा । वह समझाने लगी – कि मैं अचानक जा रहा हूँ ना उसके गाँव में राखी नहीं भी मिल सकती है । हमारे घर पर कुछ राखियाँ हरेक बार बच जाती है – माँ उसमें से एक राखी चुनकर मेरे पाकेट में डाल दी ।
बिमला दीदी वह कोई 10-12 साल की रही होगी तब उसे उसकी, माँ हमारे घर में रख गयी थी । मैनें उसी के पास घुटने टेकना, और दूध-भात खाना सीखा था । फिर कुछ बरसों बाद जब मैं स्कुल जाने लगा था तो उसकी माँ फिर उसे हमारे यहाँ रख गयी थी – ताकि हमलोग शादी के लायक लड़का खोजकर शादी का प्रबंध कर सके । उसकी माँ किसी तरह से छोटी सी अपनी खेती और लोगों के यहाँ खेतों में मजदूरी करती थी ।
मैनें साईकिल उठाई और चल पड़ा बेलगाछी । वैसे उस दिन सुबह भी बारिश हूई थी और आकाश में मेघ थे – सो छाता मैनें ले लिया था। 15 साल के बाद भी वहाँ का सर्पीला रास्ता मुझे याद है । दो चीजें मैं जल्दी नहीं भुलता – चेहरे और रास्ते । पर बेलगाछी में कहाँ रहती है बिमला दीदी पता नहीं । पर खोज लूँगा मुझे विश्वास था । रास्ते में मिठाई खरीदी, आधा किलो रसगुल्ले – एक पालिथीन में । पालिथीन को डाल दिया साईकिल के हैंडिल पर । आधे रास्ते मैं पहूँचा था कि बारिश शुरू हो गयी । एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया ।
अपनी मिठाई की पालिथीन ठीक कर ली । रास्ते में आस-पास गाँव भी नहीं दिख रहा था । कुछ देर रुकने के बाद मुझे लगा कि मैं समय बरबाद कर रहा हूँ । छाता खोलकर एक हाथ से साईकिल पकड़कर धीरे-धीरे साईकिल चलाने लगा । शायद इस तरह से कुछ दूर और निकल जाऊँ ।
रास्ते में कहीं कहीं पानी जमा हूआ था और उस रास्ते के मरम्मत की सुध किसी को नहीं रहती होगी । हाँ कहीं-कहीं कंक्रीट पत्थर के ढेर नजर आ जाते थे । अचानक रास्ते में किसी पत्थर पर ठोकर लगी और मैंनें छाता नीचे कर साईकिल संभालने की कोशिश की । संभल गया मैं, पर देखा मिठाई की पालिथीन फट गयी थी । उससे रस टपक रहा था । अब मिठाई को हैंडिल पर टाँगकर रखना संभव न था । अब उपर से बारिश एक हाथ में मिठाई की फटी पालिथीन, जिसे अब बस एक ठोकर लगी तो सारी मिठाई सड़क पर बिखर जाती । अब शहर से जा रहे मेरे से मेहमान का हालत क्या हूई होगी – समझ लिजीए ।
मुझे अब एक पालिथीन की जरूरत थी । फटे मिठाई की पालिथीन को मैने बायें हाथ से अपने सीने से लगाकर दुसरे हाथ से साईकिल चला रहा था । शायद एक किलोमीटर गया ही होऊँगा कि एक गाँव सा दिख रहा था । वहाँ तक पहूँचने से पहले पालिथीन के अंदर कई मिठाई टुट चुके थे । वह गाँव बेलगाछी नहीं था पर वहाँ रास्ते में एक पंसारी का दुकान दिखा । मैनें उनसे एक पालिथीन मांगी । दुकानदार मेरी फटी पालिथीन देखकर परिस्थिति समझ गया । उसने एक पालिथीन दी – और भी पतली सी । मैनें सोचा कि उनसे पुछा बेलगाछी कितना दूर है । 2 किलोमीटर – उसने कहा । मेरा मन हुआ एक और पालिथीन माँग लूँ । और बिना कोई सामान खरीदे माँग भी लिया । उसे मैनें सोचा कि उसे एकाध रुपये दे दूँ , फिर लगा कि कहीं रुपये देने से उसके स्वाभिमान को ठोकर न लगे ।
बारिश भी अब धीमी हो गई थी । लगता था धुप भी निकले वाला था । मैं अब पालिथीन को अपनी अँगुलियों में लटकाकर फिर दोनों हाथों से साईकिल चलाने लगा । मैं चलता रहा, रास्ते में कुछ लोग मिलते तो पुछ लेता और कितनी दूर है बेलगाछी ।
विमला दीदी माँ की प्यारी थी । किसी पर गुस्सा कैसे करते हैं – विमला दीदी को पता नहीं था । 1986 – विमला दीदी की शादी हो गयी । हमलोग पुरा परिवार जाकर उसकी शादी का प्रबंध किये थे । पालकी में उसकी विदाई के समय मैं भी रोया था – हाँ आँसु नहीं आये थे, जैसे अपनी बहन की विदाई में आई ।
पर मुझे पता था कि जीजाजी किसी बेकरी में काम करते थे । हमारे शहर से करीब 5 किलोमीटर दूर बेलगाछी गाँव में शादी हूई थी उसकी । और उसकी शादी के बाद बहुभात में मैं उसके गाँव मामाजी के साथ गया था उसके बहूभात के दिन । दोनो की जोड़ी दो सीधे बैल की जोड़ी थी ।
ऐसी ही बातें सोचते सोचते मैं पहूँच गया बेलगाछी के करीब । रमजान नदी के किनारे बेलगाछी का गाँव वही था – दिल मेरा पुरा गवाह दे रहा था । पर अब गाँव में पहूँचकर किससे कैसे पूछेंगे – बिमला दीदी के बारे में पता नहीं । वह मुझे पहचान पाएगी भी नहीं या मैं उसे पहचान पाऊँगा भी कि नहीं ।
अगर गाँव में प्रवेश से पहले किसी से बिमला दीदी के बारे में पुछ लूँ तो अच्छा रहेगा । मैं आगे बढ़ गया । दूर से दिख रहा था एक बट वृक्ष के नीचे कुछ महिलाएँ बैठी थी । निकट गया तो पता चला वो खेत के मजदूर है । पास में धान की रोपनी हो रही है । शायद दोपहर के खाने के लिए बैठी है । मै साईकिल से उतर कर उनकी ओर जाने लगा । सब महिलाएँ मेरी ओर देखने लगी । कैसे पूछूँ और किससे पूछूँ – एक अजीब सा उधेरबुन में था मैं । उनके सामने मुझे ऐसा लग रहा था कि सब महिलाओं के जिज्ञासु चेहरे मुझसे स्वाभाविक रूप से पुछ रहे थे – आप किसे खोज रहे हैं । मेरी नजरें बीच में बैठी एक महिला पर अटक गयी । गोरी सी, छोटी सी नाक । और उसकी आँखे मुझ पर । मुझे लगा कि वह बिमला दीदी जैसी लगती है । मैनें अपने को धिक्कारा – 15 साल के बाद ऐसे किसी मजदूर महिला के साथ बिमला दीदी को कैसे तुलना कर सकता हूँ । पर वह महिला मेरे तरफ देखे जा रही थी । मुझे लगा कि उन्हीं से पुछ लूँ ।वो अपने बगलवाली महिला से कुछ बात करने लगी – फिर अचानक कह उठी हमारे देशी भाषा में – “प्रेम नाकी” ( प्रेम हो क्या ) ।
“बिमला दीदी” – मैनें भी पुकार लिया । “भाई रे – भाई” – वह उठकर सामने आने लगी । सारे औरतें हम दोनों की और देखने लगी । मैनें साईकिल को स्टैंड लगाकर आगे बढ़कर उसके पैर छूए । वह बाकी महिलाओं को कहने लगी – जिस भाई की बात वह आज उनसे कर रही थी – वह मैं ही था । आज वह किसी को राखी नहीं पहनाई थी । कई साल पहले वह राखी लेकर हमारे घर आई थी और हम भाईयों को घर में नहीं पाकर चली गयी थी । वह दूसरे मजदूरों को कह दी कि वह घर जा रही है – वह अब नहीं आएगी । मैनें मिठाई की पालिथीन उसके हाथ में थमा दी ।
सब महिलाओं के चेहरे पर आश्चर्य का भाव और विमला दीदी के लिए खुशी का सागर । मैनें पुछा, वह मुझे कैसे पहचानी । उसने सरल शब्दों में मुझे चुप कर दिया – “जो मेरे सामने घुटने टेकने सीखा, खाना सीखा, उसे मैं नहीं पहचान सकूँ” । मैनें पुछा – वह यहाँ खेतों में क्या कर रही थी , चुकि मेरा विश्वास था कि वह शायद मजदूरों कि निगरानी के लिए आयी होगी । उसने बतायी – आजकल थोड़ा काम मिला है, कई दिन से वही कर रही थी । मेरी बिमला दीदी – खेत की मजदूर । जीजाजी किसी मिठाई के दुकान में आजकल काम करते हैं ।
मैं उसके साथ उसके घर गया । देखा उसका दो घर , कच्चा सा । एक रसोईघर, कोने में । उसने सारा हाल कह सुनाया कैसे उसके दिन बीते । बीच में बगल की एक लड़की को बुला लाई खाना बनाने के लिए । और मुझे नास्ता परोसा – भूजे हूए चुरा दुकान से अभी खरीदी डालमोट और आलु की महीन भुजिया ।
और कह गयी बेटी को आँगन लेपने और खुद निकल गयी गाँव की और – अगर मैं गलत ना था तो कुछ खरीदने । वापस आकर नहाने गयी – और नयी सुती साड़ी पहनी, शायद शादी-विवाह में एकाध बार पहनी होगी और पुरानी मैंचिंग की ब्लाउज । बीच बीच में रसोई में जाकर कुछ कह आती । उसके आँगन में आज मेहमान आया है ।
उसने राखी की थाली सजाई – बरामदे पर – दुब, धान, पानी का लोटा – उसमे आम का पल्लव । टीका के लिए चंदन तो था नहीं थोड़ी सी कहीं की रखी अबीर । और थाली में एक कोने पर पड़ी थी – दीदी का खरीदा हुआ राखी – छोटा सा – शायद दो रुपये का होगा – फोम पर चमचमाते प्लास्टिक और लटकते नन्हें से धागे – पतले से । बैठने के लिए लकड़ी की पिढि़या । मैं बैठ गया । मुझे याद थी कि मेरा पाकेट में घर से लायी राखी पड़ी है – पर मेरा मन हुआ कि मैं वही राखी पहनूँ । सस्ती वाली दीदी की । धान-दूब से मेरा आदर हुआ । हमारे यहाँ शुभ मुहूर्त में महिलाँए उलू ध्वनि देते है । उसने भी दी । अब वह राखी को उठाकर उलट पलट ही रही थी और बता रही थी – उसके गाँव में एक ही दुकान में राखी मिली । राखी के धागे इतने छोटे थे कि मेरी कलाई मे नहीं बँधते । वह अफसोस कर रही थी । मेरा मन नहीं माना – मैनें बता दिया कि माँ ने एक राखी भेजी है और निकालकर उसे दिखाया । शहर की डिजाईनर राखियाँ – उसके आँखों में एक चमक सी छा गयी । पर मैनें कहा कि, दीदी मुझे आप अपनी वाली राखी पहनाओ । लेकिन अच्छी राखी पाकर, वह अब अपनी राखी को अलगकर रख दी । वह कहने लगी, मामी ( मेरी माँ को वह मामी कहती है ) कितनी अच्छी है । मैं हमेशा कि तरह मान गया, कहानियों और कविताओं से परे महिलाओँ की कुछ भावनाएँ महिलाँए ही समझती है ।
हाँ एक कटोरे में मिठाई थी – मेरा लाई हूई । मुझे वह मिठाई खिलाने लगी – और अपने मुँह की अधकटी मिठाई मैनें भी उसे खिलाई । मैनें थाली में रख दिये सौ रुपये का नोट । शाय़द दो दिन की मजदूरी सी होगी । पर वह अधिकार से बोल पड़ी – भाई अगले बार साड़ी लुँगी ।
अब जब तक खाना पक रहा था । वह मुझे गाँव में सब संबंधी के घर घुमाने ले गयी । और बीच-बीच में बताती जाती – कैसे लोगों ने जमीन बँटवारे के समय जीजाजी के साथ बेमानी की । पर आश्चर्य मुझे लगा कि सबके साथ उसके व्यवहार अच्छे थे । सारे जगह पर वह भाई की बड़ाई करती और शो-मेन जैसा पेश करती जाती । चाय का पेशकश मुझसे पहले वही ठुकरा देती – पर वह अंडे के बारे में सबसे पुछ लेती । गाँव में अंडे दुसरों के घरों से खरदते हैं। अंतिम मे एक घर पर चाय के लिए हां कह दी । और वहाँ से कुछ अंडे भी ले ली ।
खाना बन गया था -मेहमान को अकेले नहीं खिलाना चाहिए इसलिए साथ में बैठा था उसका बेटा जो छठी में पढ़ता था । परोसा गया – मोटा चावल का भात, लकड़ी के चुल्हें पर पका मुँग का दाल, भिंडी की भुजिया , पटुए का साग, आलु-परवल की तरकारी और स्पेशल आईटम – अंडे का आमलेट । फिर भोजन समाप्ति पर वही मेरी वाली मिठाई फिर से ।
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आज अभी रक्षा-बँधन का बर्ह्ममुहूर्त है । सुरज उगने में कई घंटे और बाकी है – पर बिमला दीदी के लिए यह रतजगा छोटा संस्मरण भी कम है । कल आफिस की कामों में उसे याद कर पाऊँ या ना कर पाऊँ, पर मुझे पता है -फिर कल दिन में शायद धान की खेतों में बहना – भाई को याद करेगी ।
कृष्णसखा
कहीं नन्हें फुलों सा,
और नीली कलियों सा,
हाथों से सहेजकर,
हवाओं से बचाकर,
संबंधों को सहेजा है मैनें ।
मीठे स्वपनों सा,
अठखेली गीतों सा,
छिप गुनगुनाकर,
उसी हवा को सुनाकर,
सखाओं संग गाया है मैनें ।
जब कभी टुटे माला सा,
बिखरे मोती फुलों सा,
अनुभूति की डोर सजाकर,
फिर एक माला में बुनकर,
गोकुल में पहनाया है मैनें ।
अनूप जी के लिए
प्रिय अनूप जी,
आपका लेख पढ़ा । ऐसे मैनें वहाँ टिप्पणी तो डाल दी है पर कुछ और लिखना चाहता हूँ ।
आप माने न माने पर एक बात तो सच है भावनाएँ वाई-फाई (wi-fi) होती हैं। इंटरनेट तो बस एक माध्यम हैं । एक तरफ आप किसी खास विषय पर सोचते हैं तो आपका दिल से नजदीकी मित्र आपको याद करता है और उसी विषय पर कुछ पुछ बैठता है । आज मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ ।
आज कुछ तो गाओ तुम साजन,
क्यों आज सुना तेरा फिर आँगन ।
चुप क्यों हो फिर तुम, यूँ मौन धरे,
तू गाता चल, ……
आज जब मैं ये पंक्तियाँ टाईप कर ही रहा था तो जीमेल पर जीतू जी का चाट मैसेज कुछ यूँ टपक पड़ा ।
जीतू: http://hindini.com/fursatiya/?p=312 tumko yaad kiya ja raha hai
चूँकि यह लिंक फुरसतिया से संबंधित था और वहाँ याद किये जाने कि बात हो रही थी तो मुझे पक्का लगा कि मेरी खिचाई हुई होगी मस्त । खैर एक क्लिक में रिश्ते बनने-बिगड़ने वाली इंटरनेट की दुनिया में मैंने भी बस क्लिक ही किया था कि मेरा पुरा दिमाग री-बुट हो गया ।
सच पुछिए तो उस समय कविता लिखने का मुड तो थोड़ा अजीब सा तो हूआ पर शुभ आश्चर्य हुआ कि मेरे कविता की पंक्तियों और वहाँ पर आपके लेख में काफी समानता ही दिखी । कविता में, मैं सोच रहा था एक ऐसे आँगन के बारे में – जो अभी शांत सा है – और उसकी चुप्पी शायद मुझे खलती है । और बस ऐसा ही दुसरी तरफ ऐसा ही मेरे लिए कोई सोच रहा है – मुझे विश्वास नहीं हो रहा था ।
हाँ तो अनूप भैया, आपका स्नेह निश्छल है । मैं वापस आ गया हिंदी चिट्ठाकारी में । जहाँ हाय – हैलो की सभ्यता से दूर एकदम गाँव का चौपाल, जहाँ कहीं कोई खैनी दबाकर दाँव ठोकता है तो कहीं किसी को पान चबाकर, चुपके से पीक फेंकने की कला भी आती है । तकनीकी भैया लोग कहीं नारद को हाई-टेक कर रहे हैं तो कहीं देबुदा निरंतर सबकी बातें करना चाहते हैं । रविजी और देबुदा के देशी दिल का पक्का लगन काबिले तारिफ है । भुल नहीं सकता कि जब भी जरुरत पड़ी इन्होनें सहायता की है मेरी ।
कहीं मैनें पूर्वी को खोया तो लगा – क्या मासुम रिश्ते भी भ्रम से हैं – हाय रे विधि का विधान । तो कहीं निराश मन को जगाकर कंधो का मजबुत करने की बात आयी, उन पर खेलने वाले जो आ गये है – मैं चाचाजी , मामाजी या यूँ कहें इंगलिश में अंकलजी बन गया हूँ ना ।
हाँ तो सच में मैं खोया था । रिश्ते खुद से बना रहा था । कुछ बातें दुसरों से समझ रहा था तो कुछ खुद को समझा रहा था । काफी संघर्षपूर्ण रहे आपसे बिछड़े दिन । लेकिन आज मुझे भी सुनने के लिए आप सब साथ हैं और क्या चाहिए मुझे । मै आपके साथ चलता जाऊँगा ।
आपका,
अधकटी पेंसिलवाला ।
सेल्समेन
आज मेरे लिए हजार रुपये खर्च करना कितना महत्व रखता है , शाय़द ठीक से पता नहीं, पर उन दिनों हजार रुपये कमाना कुछ जायदा ही मायने रखता था । दीदी की शादी के आसपास, घर की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी । और हम दोनों भाईयों के पढ़ाई का खर्चा, हमारे लिए नये कंप्युटर, आदि – आदि । और छोटी बहन की पढ़ाई चल ही रही थी और उसकी शादी के लिए थोड़ी-बहूत फिक्सड डिपोजिट को निकालना बाबूजी और माँ जैसे सरकारी कर्मचारियों के लिए मुश्किल सा था । पर हिसाब से चलना अब भी मुझे सीखना है, सच पुछिये तो आज इतना कमाकर भी मेरा हिसाब डाँवाडोल हो जाता है ।
हाँ तो सुनाते हैं, सेल्समेन की कहानी – बिना किसी भी फिक्शन के, कुछ बीती बातें जो मुझे याद आती है । या यूं कहें तो अच्छा रहेगा – एक सेल्सवुमेन की कहानी ।
आर्थिक तंगी के उन दिनों मेरे मौसेरे भाई ने सिलीगुड़ी से आते समय माँ को दिखा दिया कुछ स्कीम – नेटवर्किंग मार्केटिंग का – मोदीकेयर । साबुन, टुथपेस्ट से लेकर बच्चों के खिलौने तक सब कुछ बेचकर फायदा कमाया जा सकता था । मुनाफा करीब 15 प्रतिशत । आधा या पुरा पता नहीं कितना सोचा माँ ने, प र कुछ सोचकर ही करीब 3 हजार रुपये देकर माँ ले ली एक एजेंसी – घर-घर घुमकर बेचने के लिए । साथ में खरीदा माल करीब 2 हजार रुपये का ।
मैं सिलीगुड़ी मे पढ़ता था उस समय । सिलीगुड़ी से हरेक महीने मैं उनका माल ले आता था । हरेक महीने जब घर आता था तब सुनता वह कैसे किनके यहाँ- क्या बेच रही है । सबसे ज्यादा बिकती थी – टुथपेस्ट । करीब 56 रुपये का 100 ग्राम – ग्राहक से कहना पड़ता था – थोड़ा से ही काम चल जाता था । और दूसरी और महंगी थी पर बिकती थी – टी ट्री आयल और मास्चराजिंग क्रीम – चेहरे की धब्बे को ठीक करने के लिए । खरीद लेती थी – घरेलु औरेंते भी – अपने बचत के पैसे से ।
“दीदी जी इसबार 3 सौ रखिये ना – अगले महीने सौ रुपये दे दूँगी ।” और हाँ वह आँटीजी दुआएँ देती रहती माँ को – उसके चेहरे के काले धब्बे पता नहीं – महंगे प्रसाधन व्यवहार से या कुछ खुद के ख्याल रखने से साफ हो रहे थे ।
शाम को कई दिन बेचकर मुहल्ले की ग्राहकों से गपशप करके वह करीब सात बजे घर आती थी । एक रात जब मैं उनकी अनबिकी समानों को देख रहा था – देखा बार-बार पैकेट खोलते बंद करते टी ट्री आयल और मास्चराजिंग क्रीम का पैकेट पुरानी सी लग रही थी । कई पैकेट बिक गये थे पर शायद पुरानी सी पैकेट लगने के कारण उसे कोई खरीदता भी नहीं होगा । सर उठाकर देखता तो दिखती – उनकी अनबिकी चिन्ताएँ चेहरे पर, गाल पर काले से धब्बे बन आए थे । उस समय हजारों रुपये के बेतन मिलते थे पर उन्होनें सौ रुपये की भी शायद क्रीम कभी खरीदी होगी खुद से – पता नहीं । कंजुसी नहीं – पर उसी बचत के पैसों से सब कुछ – सिर छिपाने लायक एक मकान, पेट भरने लायक खेती की जमीन – और कहना चाहूँगा कि सबको तैयार करने में बाबुजी की बराबर की हिस्सेदारी । जब क्रीम की बात आयी तो कह ही दूँ कि मेरी दीदी और बहन को शहनाज हूसैन की क्रीम ही सुट करता था – और वे उस समय बचत करके, बाबुजी का खुशामद करके भी पैसों का जुगार कर भी लेती थी ।
पर उस दिन न कमानेवाले मुझ बेटे की हिम्मत नहीं होती कि कहूँ – “माँ तुम खुद के लिए एक मोदीकेयर वाला स्कीन क्रीम युज क्यों नहीं करती” । पर उस रात मेरा मन नहीं माना – अपने तरीके से कह ही दिया – “माँ इतना महँगा क्रीम ऐसे पुराने पैकेट मैं कौन खरीदेगा ? और देखो ना – इसका ढक्कन का स्टीकर भी फट सा रहा हैं । और कई महीने में इसका इफ्फेक्ट भी कम हो जाएगा – फिर खरीदने वाले को भी फायदा नहीं होगा । जब लोगों को फायदा होता है तो आप भी ये वाला युज करके देखो ना – आपको भी चेहरे के लिए कुछ चाहिए ना ।”
सच पुछिये तो सबको उस क्रीम का गुण बताते-बताते मन तो उनका भी करता होगा कि एक बार वह भी इस्तेमाल करे । पर डब्बेवाली “अफगान क्रीम” लगाकर पली-बढ़ी मेरी माँ की इतनी हिम्मत न हो पाती 400 रुपये वाली क्रीम की – जो बात हम दोनों समझते थे ।
हरेक महीने सामान बेचकर फायदा करीब आठ सौ – हजार रुपये की हो जाती थी । कहती थी – सब्जी का तो खर्च निकल आता है ना ।
छोटे शहरों में बिक्री के लिए ट्राई करने के लिए जो भी खरीदे – सब नहीं बिकती थी । नहीं बिकी – उनकी रेजर सेट – तो मुझे देने लगी । नहीं बिकी उनकी किताबों की सेट – नहीं बिकी उनकी महँगी नेलपालिश की रेंज और कुछ साफ्ट टाएज खिलौने । एक रैबिट वाला साफ्ट टाए तो अभी तक पैकेट में ही है – कहती है – पोते को देगी । स्कुल के बाद शाम को और रविवार की शाम – करीब 4 से 5 किलो बजन का बैग लेकर घर-घर घुमती – पैसों के लिए और हाँ उसे शायद ऐसा करके संतोष भी होती । उनकी परेशानी और होने वाली आय को देखकर बाबुजी मना करते रहते – पर पता नहीं क्या-क्या करना चाहती – मेरी माँ । वैसे उनके बैग में भी एक दुकान था – आफिस और स्कुल की मैडमों जैसी कई नियमित खरीददार थी उसकी ।
एक बार करीब सप्ताह भर की छुट्टियों में मैं घर पर था । वैसे कई बार मैनें भी उनसे कहा कि “माँ कुछ समान दो – मैं बेच आता हूँ “। पर मेरे साथ सबसे बड़ी परेशानी थी कि बाहर पढ़ाई-लिखाई होने से अपने मुहल्ले से बाहर ज्यादा लोग मुझे जानते भी नहीं । पर मेरी इच्छा को देखकर माँ ने कह दिया कि -“अच्छा बगल के आजाद पब्लिक स्कुल में प्रिसिंपल ने रुचि दिखाई थी – उनके मैडम ने कुछ सामान खरीदी भी थी – उनके पास कुछ सामान दिखा आओ। होस्टल के बच्चों के लिए कुछ पेंटिंग की किताब ले लो । “
नास्ता करके समान उनके कंपनी वाले बैग भरकर मैं चल दिया । रविवार का था वह दिन । वहाँ प्रिसिंपल की उम्र करीब रही होगी कोई 35 साल । साथ मे थे भाइस-प्रिसिंपल । मैनें अपना परिचय दिया – “दीदी जी जो उस दिन आयी थी – कुछ समान दिखाने – मैं उनका बेटा हूँ ।” मैं दिखाने लगा हैडवास लिक्विड से लेकर बाडी स्क्रबर और आफ्टर सेव लोशन और एडुकेशेनल कैसेट ।
पता नहीं कैसे सीखा – पर मुझे प्रोडक्ट समझाना आता है । अंदाजा लगाया उनकी जरुरतों को जानने का । समझाया उनको जैसे कि ये सारे उनके अपने ही समान हैं । भाई साहब कुछ सामान लेकर बेगम को दिखाने घर में ले गये । उनका परिवार वहीं कैंपस में रहता था । करीब छः सौ रुपये के सामान खरीदे दोनों ने मिलकर । अदाजा नहीं था कि इतना खरीद लेंगे – पर मेरे लिए उस समय भगवान से कहीं कम नहीं थे वे ।
भाइस – प्रिसिंपल ने पुछ ही डाला – “अच्छा भाई साहब आप वैसे क्या करते है ?”
” एम सी ए में पढ़ता हूँ । “
“तो फिर यह सब …. ?”
“बस इगेंजमेंट, और आपकी सेवा । “
वे हँसने लगे । भाइस – प्रिसिंपल जो अलिगढ़ युनिभर्सिटी से इंजिनियरिंग करके शिक्षण में समर्पित थे – मेरे अब मित्र बन गये ।
“एम बी ए कर लें – आपके लिए सुट करेगा ” – वो राय दे रहे थे ।
पर इधर मेरा भार कम नहीं हो रहा था बैग का – बिन बिके किताबों के चलते । पिसिंपल साहब बच्चों के लिए नहीं खरीद पायेंगे – पेटिंग की किताबें – 20 – 30 और 50 रुपये वाली – फंड नहीं हैं उतने उनकी । पर अनुमति मिल गयी – बच्चों से मिलने की – अगर वो खरीद सकें खुद से ।
मैं बैग लेकर हास्टल के बरामदे में पैर लटकाकर बैठ गया । नये स्कुल के हास्टल में उस समय करीब 50 बच्चें रहे होगें । रंगीन पेंटिंग के किताब ले-लेकर बच्चे देखने लगे । आज भी नहीं भुल पाता हूँ की “अलादीन” की पेंटिंग किताबें सबको पसंद थे । एक गोरा बच्चा – अच्छे घर का लगता था – ने खरीदी एक 50 रुपये की किताब । वैसै बच्चों की भीड़ देखकर सोचा कि कम से कम दस तो बिकेंगे ही । पर खरीदने वाले कुल बच्चे थे – सिर्फ तीन । तिस पर भी एक बच्चे के दो रुपये कम हो रहे थे ।
बच्चों नें बताया कि उनके अभिभावक इधर बहुत दिनों से नहीं आये थे । 30 तारीख को आयेंगे सबके अभिभावक – उस दिन छुट्टी होने वाली है । सबके मुँह से एक ही बात – अंकल आप 30 को आईए ना – मेरे अब्बा आयेंगे – मेरे पापा आयेंगे । मेरे भैया आऐंगे – मैं पजल वाली बुक खरीदूँगा । और उनके हास्टल में ज्यादा पैसे भी रखने नहीं दिये जाते हैं । जो कुछ था – खर्चा हो गया था सबका।
किताबों को हाथों में पकड़े हूए, उन लोगों का चेहरा देखकर मन तो करता था कि – सब किताबें उनकों दे आऊँ – बाद में आकर पैसे ले लुँगा । पर नहीं खरीदने वाले बच्चों से एक – एक करके किताब लेकर मै बैग में डाल लिया – किताबें नहीं बिकी फिर । मैं वापस चल पड़ा घर की ओर ।
घर पहूँचकर माँ को हिसाब दे दिया – बता दिया कि 30 को बच्चे फिर बुला रहे हैं । 30 तारीख तक मुझे घर पे रहना था । करीब 4 सौ रुपये की किताबें होगी – जो बेचनी थी हमें । बीच में प्रिसिंपल सर की मैडम को एक क्रीम भी दे आयी था मैं । उस दिन फिर बच्चों ने मुझे पहचान लिया और घेर लिया और सबने फिर याद दिलाया कि – 30 तारीख को आईएगा अंकल ।
इधर घर पर हम लोग आपस मे मिला चुके थे कि मैं घर पे ना भी रहूं तो माँ किताबें बेच आएगी उस दिन वहाँ ।
घर पर उस समय कुछ जरुरी काम चल रहे थे और एक शाम हम लोग बरामदे में बैठे थे और याद आयी किताबों को बेचने की बात । मैनें माँ से पुछा – “माँ… आज तारीख क्या है !”
और हम दोनों एक दुसरे को देख रहे थे । वह 30 तारीख की शाम थी । बाहर अँधेरा होने वाला था ।
हम दोनों बरामदे से उठकर घर में आ गये । रैक पर रखी हूई थी – किताबों का अलग से रखा गया पैकेट जो हमने उस दिन के लिए अलग से बाँधकर रखा था । हमें दुख नहीं था कि हमारी किताब नहीं बिकी ।
आज हम दोनों चुपचाप से थे कि आज बच्चों की छुट्टी हो गयी । आज सुबह से सब आस लगाकर बैठे रहे होंगे । इतने दिन से आशा लगाकर आज बिना किताब खरीदे ही घर चले गये होगें ।