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भगवानजी का प्रसाद ( एक छोटी कहानी )
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उस दिन आकाश का आठवां जन्मदिन था । घर में सबसे ज्यादा खुश थी तो उसकी दादीमाँ । उनके ढलते जीवन में एक नया आधार बड़ा हो रहा था । दादीमाँ अपने बेटे शेखर को कहती भी थी कि उसने उसे आज तक दो ही सबसे अच्छी चीजें दी – एक तो उसकी गुजराती बहू, दूसरा उसका पोता आकाश । दादीमाँ को लगता था कि आकाश बिलकुल उसके दादाजी पर गया है ।
वैसे सुबह की पूजा हो या रात में कहानी सुनने का समय, आकाश अपने माँ-पापा से ज्यादा समय दादी के साथ बिताता था । आकाश क्लास में हमेशा प्रथम आता था । सबसे अच्छी बात यह थी कि शाम के समय दादी माँ कुछ किताबें पढ़ती रहती और आकाश वहीं बैठकर होमवर्क भी करता रहता । ज्यादातर घरों में दादी के लाड़-प्यार में बच्चे बिगड़ जाते हैं पर आकाश को लेकर, शेखर को अपनी माँ से कोई शिकायत नहीं रहती ।
शेखर माँ के विचारों से अलग, आधुनिक विचारों को मानने वाला था और अपने ढंग से आध्यात्म का व्याख्या करता था । शेखर नास्तिक नहीं था पर उसका मानना था कि ज्यादातर कर्म कांड और फुल-प्रसाद के देवी पुजन सारे बेकार से है ।
वैसे शेखर ने माँ के कहने पर अपने बंगले के ड्राईंग रुम के पूर्व दिशा की ओर पुजा का एक घर बनवा दिया था । जहाँ आकाश बचपन से ही अपनी दादीमाँ के साथ पुजा में बैठता था (मीठे प्रसाद के लिए) ।
खैर उस दिन घर में शेखर ने आकाश के जन्मदिन की तैयारी ऐसी की थी कि लगता था उस दिन आकाश की शादी होने वाली थी । घर में दोनों फुआ, फुफा, मिनी, रोजी और नन्हा गोपी सब आये हूए थे । छोटे-छोटे बच्चों का इधर से उधर कुदना, उनकी छोटी मोटी शिकायतें और मम्मी लोगों की आज गपशप – माहौल काफी चहलपहल का था ।
आकाश की फुआ आज उसे नई लाल साईकिल भी दे दी थी। नयी साईकिल कोने में रखी थी । फुफेरी बहन मिनी और रोजी ने सारे बैलुन ड्राईंग रुम में सब जगह टाँग दिये थे । हाँ, पंखे पर बैलुन टाँगने के लिए जब जरुरत पड़ी तो मिनी ने अपनी माँ को मेज पर चढ़वा दिया । यह देखकर सब हँसने लगे थे ।
पर आज दोपहर के पुजा के बाद से पता नहीं क्या हूआ, आकाश अपने जन्मदिन पर गंभीर सा हो गया था और आकाश को फुआ ने पुछ भी लिया कि – “क्या साईकिल उसे पसंद नहीं आयी” । पर आकाश ने फुआ को कहा कि “साईकिल बहूत अच्छी है” ।
वैसे, आज शेखर ने अपने बेटे के इस जन्मदिन के लिए विशेष इंतजाम करवाया था । बड़ा वाला केक आर्डर देकर मँगवाया गया । उस पर लिखवाया था Happy Birthday Day to Amit. मेहमानों के खाने के लिए नामी रेस्तरां “शीशमहल” से केटरिंगवाले को बुलवाया गया। करीब 40-50 मेहमान आने वाले थे ।
आरती ने आकाश को पहनायी थी, सिल्क की सुंदर सी शेरवानी । वह छोटा दुल्हा सा लग रहा था । आरती खुद तैयार होकर शेखर को भी नये कपड़े निकाल दी । मजे की बात तो यह थी कि दादीमाँ ने आज खुद निकालकर नयी साड़ी पहनी थी, वैसे बाकी दिनों में आरती को सासु माँ से साड़ी पहनने के लिए कहना पड़ता था ।
सात बजे तक सारे मेहमान आ गये थे । ड्राईँग रुम लगभग भर सा गया था । उपर टंगे बैलुन मेहमानों के सिर से टकराकर लहराते से थे । जगह की कमी के कारण, शेखर के कुछ दोस्त बरामदे पर ही बैठे थे ।
कमरे के बीच में आरती ने केक को बहूत सुंदर ढंग से सजाया था । शेखर के इस बार के सुगंधवाले मोमबत्ती से माहौल काफी खुशनुमा हो गया था । बेटे के जन्मदिन पर उसने आज खर्चे में कोई कमी नहीं की थी । आरती शेखर की ऐसी फिजुलखर्ची पर थोड़ी नाराज भी हूई थी ।
पूरी तैयारी के बीच, अब केक कटने वाला था । बीच में आकाश, एक तरफ दादी माँ दुसरी तरफ आरती और उसके पास में शेखर । मोमबत्ती की रोशनी मे आकाश का चेहरा चमक रहा था । आकाश ने मोमबत्ती को फुँक से बुझाया और सबने गाये हैप्पी बर्थडे वाले गीत ।
“बेटा केक काटो और पहले माँ को दो ” – दादीमाँ कही ।
आकाश बड़े सलीके से केक काटकर अपने माँ के मुँह में केक पहूँचाने लगा । आरती हाथ में उसी केक को लेकर वापस आकाश को खिलायी । यह देखकर सब मुस्कुराने लगे ।
“बेटा अब पापा को” – दादी माँ कह पड़ी । आकाश दुसरा टुकड़ा काटकर पापा को नहीं देकर दादी माँ के मुँह में डाल दी । दादी माँ फिर कह पड़ी – “बेटा पापा को दो… ” ।
आकाश ने केक का तीसरा टुकड़ा काटा और फुआ की ओर हाथ बढ़ा दिया । आकाश ने पापा की ओर देखा भी नहीं । आरती, दादी माँ कुछ समझ नहीं पायी । आकाश सामने खड़े पापा का ऐसा नजरअंदाज कर रहा था – दोनों समझ रही थी पर कुछ कह न पाती थी ।
चौथा टुकड़ा भी कटा और पाँचवा भी । केक पाकर खुश हो गये मिनी और रोजी ।
दादीमाँ कह पड़ी – “बेटा पहले माँ-पापा को केक देते है । वे तुम्हारे जन्मदाता है ना ।”
आकाश दुसरी और देखकर कहने लगा । “हाँ पर यह केक तो उन्होनें मुझे खाने को दिया है ।”
बेटे के ऐसा कहने पर शेखर को बहुत बुरा लगा होगा पर उसे समझ में नहीं आया आकाश ने ऐसा क्यों कहा । मेहमानों के सामने उसने मुस्कुराने की कोशिश तो की – पर उसके चेहरे को देखकर लगता था कि बर्थडे की सारी तैयारी कहीं फीकी रह गयी ।
“बेटा कैसी बातें कर रहे हो ।” – कहकर दादीमाँ फिर बात बदल दी – और हँस पड़ी ।
पर मेहमान कुछ खास समझ न पाये । केटरिंग वाले अपना स्वाद जीभ पर छोड़ गये । लोग गिफ्ट देकर चले गये । सबने खाने की प्रशंसा की थी पर शेखर की तैयारी की तरह ही एकाध बैलुन फट गये थे । कुछ रंगीन फीते जमीन पर गिर थे ।
और मेहमानों के जाने के बाद, बाहर बालकोनी में कुर्सी पर, शेखर गहरे सोच में डूबा हुआ चुपचाप बैठा था । किसी ने एक भी गिफ्ट की पैकेट नहीं खोली । कहीं कुछ गलत हो गया था । और अंदर सोफे पर लेटा था आकाश, और पास में चुपचाप बैठी थी मिनी । दादीमाँ उनके बगल में बैठ गयी । वह जानती थी आकाश को पापा से कुछ हुआ है ।
“बेटा तुमने पापा को वैसा क्यों कहा ? ” – दादीमाँ पुछ ही बैठी ।
“मैनें कहा ना… सब कुछ पापा ने मुझे ही तो दिया, वैसै उन्हें मैं न भी दूँ तो वो बाजार से खरीदकर खा सकते हैं ना । “
आकाश आज अजीब सी बात कर रहा था । दादीमाँ उसकी हथेली सहलाकर कहने लगी – “बेटा तुम ऐसी बातें क्यों कर रहे हो ? “
“अच्छा दादीमाँ आप मुझे बताती हो ना हमारे, आपके, पापाके, मम्मीके ….सबके पिता कौन है – भगवान ना …।” एक सांस में वह कह रहा था । ” …..हम सबके देने वाले कौन है – भगवान ना । “
“हाँ बेटा … ” दादी माँ अब कुछ समझ रही थी । बेटे के मुँह से ऐसी बातें सुनकर आरती साड़ी का पल्लु बाँधे सासु माँ के पीछे चुपचाप खड़ी हो गयी ।
“तो फिर हमलोग रोज भगवानजी को भगवानजी का ही दिया प्रसाद क्यों चढ़ाते हैं ? “
“बेटा मैनें तुम्हे बताया था ना, प्रसाद चढ़ाकर हम भगवानजी के पास आभार प्रकट करते है । खाने की इतनी चीजें देने वाले भगवान जी का क्या पाँच पेड़े या लड्डू से पेट भर जायगा । पर खुद खाने से पहले, खाने की चीजें भगवान को चढ़ाने से मन को शांति मिलती है और भगवानजी खुश होते है । ”
दादी माँ को कुछ कहने का अभी मौका मिल गया । वह आगे कहने लगी – “इसलिए तुम्हें भी पिताजी को खिलाकर केक खानी चाहिए । पापाजी तुम्हारे लिए ही केक लाया थे पर तुम्हें खुद खाने से पहले उन्हें देने से, पापाजी को अच्छा लगता ना । “
“हाँ, तो यही बात पापाजी क्यों नहीं समझते… ” जोर-जोर सो आकाश कहने लगा ।
“जैसे पापाजी भगवान का दिया हुआ खाने का चीज भगवान को नहीं चढ़ाते हैं वैसे ही मैनें भी उनका दिया हुआ केक उनको नहीं खिलाया … ।” आकाश का आवाज में अब एक हल्की कंपकपी सी थी । उसका गोरा सा गाल गुलाबी हो रहा था ।
“पापाजी ने हमारे घरवाले भगवानजी को कभी प्रसाद नहीं चढ़ाये और न ही प्रणाम करके आपसे कभी प्रसाद ली । और आज उन्होनें गोविन्द के लिए कुछ नहीं लाया … ” आकाश की अबोध सी आँखों नें अपनी शिकायतों की पोटली नमीं में भिंगो दी ।
अब दादीमाँ, माँ, फुआ सबको याद आ गयी उस दिन दोपहर का प्रसंग, जब बर्थडे के सामान खरीदने में आज शेखर पूजा का भोग नहीं खरीद पाया और दादीमाँ थोड़ा नाराज हो गयी थी ।
तभी जवाब में शेखर ने भी माँ को सीधे कह दिया था, “……..भगवानजी कभी स्वादिष्ट प्रसाद नहीं माँगते……” ।
और शेखर से ऐसा सुनकर, कई और दिनों की तरह उस दिन भी दादीमाँ डब्बे वाली मिश्री-किशमिश का भोग चढ़ा दी थी । और आकाश ने सब कुछ चुपचाप देखा था।
दादीमाँ बस पोते का मुँह देखे जा रही थी । आरती पीछे खड़ी चुपचाप बस बेटे की बातें सुन रही थी । फुआ ने तो साड़ी का पल्लु होठों में भींच लिया ।
आकाश अब बालकोनी की ओर देखकर कह रहा था – “देखो ना दादीमाँ, मेरे केक नहीं खिलाने पर गुस्सा करके कैसे वहाँ पर बैठे हैं । अब आप बताओ गोविंदजी आज दोपहर को उनपे कितना गुस्सा करते होगें ।” कहकर उसके होठों पर एक शरारत झलक पड़ी ।
सब लोग सामने देख रहे थे बालकोनी की ओर, जिधर से शेखर बेटे की सारी बातें सुन रहा था । आज पैतीस सालों में जो बातें उसने पिताजी से न मानना चाहा था, बेटे ने एक दिन में उससे भी ज्यादा समझा दिया था ।
सबने देखा – शेखर बालकोनी से निकलकर, बायीं ओर मंदिर की और जा रहा था । आज वह भगवान के सामने घुटने टेककर काफी देर तक फर्श पर सिर नवाये रखा । सिर उठाकर हाथों से प्रसाद में चढ़े मिश्री का बचा अंतिम टुकड़ा उठाया, जिसे चीटियाँ उठाकर ले जा रही थी ।
शेखर प्रसाद उठाकर मंदिर से बाहर निकला और वहीं फुआ के साथ सामने खड़ा था आकाश । आकाश के छोटे से उठे हाथ की गोरी अंगुलियों में चिपका था केक का बचा हुआ क्रीम । शेखर को लग रहा था आज उसके बेटे का ही नहीं बल्कि उसका भी जन्मदिन है ।
बेटे की आँखे – बाप से बहूत कुछ कह रही थी । आकाश के उठे हाथ और उसमें चिपके सफेद क्रीम जैसे कह रहे थे – “पापा, आपका प्रसाद ।” शेखर ने आकाश को बाँहों में भरकर उठा लिया ।
उस समय दादीमाँ की नम आँखें एक जन्मदिन मना रही थी ।
खैरुन की माँ
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पिछले पोस्ट में बिमला दीदी के बारे में आपलोगों ने पढ़ा होगा तो, एक ऐसा ही दुसरा संस्मरण एक ऐसी महिला के लिए – जो हम भाई बहनों की परवरिश में मां का साथ निभायी । आज कारपोरेट जिंदगी से फुरसत के कुछ लम्हों में आज मिलवाता हूँ – मेरी खाला – “खैरुन की माँ” से ।
अभी शाम को माँ का फोन आया था । वह “खैरुन की माँ” के यहाँ से बोल रही थी कि और बता रही थी “खैरुन की माँ” मुझे याद करती है । वह शिकायत कर रही माँ को – कि मैं अबकी बार जब घर गया था तो उससे मिलने क्यों नहीं गया । फिर माँ ने अपना मोबाईल खैरुन की माँ के कानों से लगा दिया । मैने उससे बात कि और बताया कि – मैं उसे बराबर याद करता हूँ और कुछ दिन पहले तो और भी ज्यादा । वह कहने लगी – “अल्लाह बेटा …. ” और नेटवर्क कट गया और मैं…. । मैनें फोन लगाने की कोशिश की पर नहीं लगा । दरअसल जिस दिन मैं बिमला दीदी के बारे में लिख रहा था तो खैरुन की माँ की भी याद आ रही थी ।
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उन दिनों मैं शायद चौथी कक्षा में पढ़ता होऊँगा । पर पुरी तरह से याद है वह रविवार का दिन । “माँजी-माँजी कुछ भीख देना” – हर रविवार की तरह उसदिन भी भिखारी एक-एक कर आते और चले जाते । लंगरू और कालु जैसे सारे भिखारी हमारे दरवाजे पर नियमित आते थे । हमारे यहाँ भिखारियों को ज्यादतर समय चावल देते है । एक भिखारिन भी हमेशा आती थी । उस दिन उस भिखारिन के साथ एक दूसरी साँवली – दुबली पतली भिखारिन आ गयी थी । उसकी उम्र होगी कोई 35 साल । चुँकि उस दिन दो भिखारिन थी – माँ प्लेट में दुगुना चावल लेकर निकली । और उस नये भिखारिन के आँचल में भीख देने जब वह सामने गयी तो माँ का मन नहीं माना कह ही दिया । वह बहुत गरीब लग रही थी पर वेष-भुषा से भिखारी नहीं ।
“इतना अच्छा देह है, कुछ काम-वाम क्यों नहीं खोजती ?” – माँ पुछ ली ।
वह चुप रही । माँ ने फिर दूहराया ।
“कौन देगा काम मुझे” – वह भिखारिन बोल पड़ी
“कुछ भी कर सकती हो – काम की कमी रहती है क्या ? ” – माँ कहने लगी – “कब से भीख माँग रही है ?”
“आज ही पहली बार निकली हूँ । ” – वह कह पड़ी ।
“हमारे यहाँ काम करोगी ? ” – माँ पुछ बैठी ।
उसने सिर हिलायी । उसका इतना हाँ के इशारे में सिर हिलाना था उसे भीख नहीं मिली । और हमेशा वाली भिखारिन को उस दिन इसके हिस्से का भी चावल मिल गया ।
माँ ने उस महिला को वहीं रोक लिया । उसके पोटली में पिछले कई घरों के माँगे चावल पड़े थे ।
उस महिला के गाल पिचके से थे । साड़ी -चोली और कपड़ा से पुरा माथा ढँका – वह मुसलमान थी । पुछने से पता चला कि दो बेटे हैं उसके । बड़ा बैटा – खैरुन दिल्ली में काम करता है – घर से उसका कोई लेना – देना नहीं । एक बेटा है तीन साल का । और एक बेटी है – 10 साल की कलुआनी । पति भी है उसका – पर दो महीने से लकुआ के कारण बिस्तर पर पड़ा है । घर में खाने के कुछ नहीं है । कभी मजदूरी नहीं की इसलिए उस दिन आ गयी भीख माँगने आ गयी उसके गाँव वाली के साथ । माँ का अनुमान गलत न था ।
माँ ने उसे रोक तो लिया था पर काम क्या करने को दे यह सोचकर मुश्किल में पड़ गयी । उसे कह तो दी की काम की कमी नहीं रहती है – पर अपने घर में इतनी जल्दी क्या काम दे मुश्किल में पड़ गयी । उस समय कपड़े धोना या बरतन माँजने या पोछा लगाने वाले काम का तो प्रश्न ही नहीं उठता था । एक काम निकल पड़ा – भुटिया सिलाई करना । भुटिया मतलब – हमारे यहाँ पुराने सुती साड़ी-धोती और चादर को कई तह बनाकर फिर रंगीन धागों से सीकर एक कंबल सा बनाया जाता है । यह काम हमारे यहाँ महिलाँए जानती है । माँ को तो आज भी घर में फाइलों से समय मिले तो भुटिया सिलाई करने बैठ जाती है ।
खैरुन की माँ को भुटिया सिलाई का काम दिया गया । उसकी मेहनताना तय हूई । वो पुरे दिन बरामदे पर बैठकर काम की । उसके खाने के लिए अलग एल्युमिनियम की थाली । उसकी पहनी साड़ी की हालत देखकर जाते समय माँ एक पुरानी साड़ी उसे दे दी और पोटली बनाकर दे दी घर में पकाने के लिए चावल-दाल ।
माँ को उसका काम पसंद आया । काम करते समय उसने कह दिया कि वह माँ को उस दिन से दीदी कहकर पुकारेगी । उसकी साफगोई और सीधापन माँ को छु गई – और मेरी माँ की सबसे बड़ी कमजोरी और जीने का आधार भी यही है । माँ भी क्या करती बेचारी – उसने भी जो बुला लिया था न उस दिन भिखारिन को घर में । खैरुन की माँ ने भुटिया में
धागे क्या सीये – माँ के दिल में एकाध धागे जड़ दिए ।
अगले दिन उसे फिर बुलाया गया और वह करीब 4-5 बर्षों तक काम करती रही । जो भी घर का काम उसे कहा जाता लगन से करती रही । मेरे शैशव में अगर बिमला दीदी थी तो मेरे अनुज के लिए वह फुआ जैसी । गरीब होने से क्या हुआ उसकी सफाई पसंद के कारण वह सिर्फ रसोई के काम के सिवा काफी काम संभाल लेती थी ।
फिर बाद में खैरुन की माँ अब कम आती थी – सुनने में आया कि वह दुसरी महिलाओं के साथ किसी खान साहब के घर जाती है । वे लोग हमलोगों से ज्यादा मजुरी देते थे । हमें भी शिकायत नहीं रही – उसे दौ पैसे कहीं से ज्यादा मिल रहे थे । हाँ एक बात थी – कभी काम के लिए माँ उसे अगर कभी बुला लेती तो कभी ना नहीं करती ।
अपने बुते पर काफी कोशिशों के बाद वह जीत न पायी किस्मत से अपनी लड़ाई । उसके आँसु वर्षों पहले शायद भिखारी के चोले के अंदर ही दब गये थे । इसी बीच हमने देखा – उसे विधवा होते हूए । लकुआ से कमजोर उसका सौहर चल बसा । अभी वह कुछ संभल ही पाती की एक दिन सुनने में आया कि उसके छोटे बेटे के पैर में चोट लगा है । वह उसी भिखारन से खबर दिलवा भेजी । माँ ने देखने के लिए अमिय मामा को भेजा । सुनने मे आया उसके छोटे बेटे का बदन टेढ़ा हो रहा था फिर देखते-देखते 24 घंटे के अंदर टेटनस से उसका बेटा चल बसा ।
खैरुन माँ का वह पहला संतान है ना – सो उसे वर्षों से खैरुन की माँ के नाम से ही जानता आया हूँ । वह भुले भटके ही घर आता था वह बस नाम का रह गया – मेरी संस्मरण में नाम पाने के लिए ।
अब घर में बच रह गयी खैरुन की माँ और बेटी कलुआनी । इधर कलुआनी बड़ी हो गयी थी । उसकी शादी अकेली माँ के लिए सिर-दर्द था । उपर से झमेला दहेज का । देखने में कलुआनी बिलकुल काली, दुबली-पतली । और स्वभाव में कलुआनी स्वभाव से अपनी माँ से नहीं मिलती थी । वैसे खैरुन की माँ ने मेरी माँ से पहले ही कह दिया था कलुआनी की शादी के समय दान (दहेज) की तीन चीजों में कम से कम एक देकर मदद करे । दान की ये तीन चीजें उस स्तर के सब बेटी वालों को देना पड़ता है – साईकिल, घड़ी और बाजा मतलब रेडियो ।
कलुआनी जैसी भी थी – अपनी किस्मत लेकर जन्मी होगी । कितनी ही बार हमने सुनी कलुआनी के शादी के रिश्ते बनते और बिगड़ते । और हमारी आदत सी पड़ गयी थी – यह सब सुनते सुनते । पर एक दिन खैरुन की माँ खुशी-खुशी हमारे घर आयी और बताया माँ को कि कलुआनी की शादी पक्की हो गयी है । बुधवार को शादी तय हूई है । लड़का अपना रिक्सा चलाता है ।
पर उसकी खुशी के पीछे चिंता की रेखाएँ आज स्पष्ट थी । शादी-ब्याह में जब माँ को पिताजी का भी दायित्व, बेबस होकर निभाना पड़ता है तो – वह उसके लिए शायद काफी कष्टप्रद होता है । वह बता रही थी उस दिन जब वह दहेज के तीन समान के लिए कैसे सबके यहाँ सुबह से घुम रही थी । उसने कहा कि अली साहब घड़ी और खान साहब बाजा देना चाहते है । अब सबसे ज्यादा दाम वाला समान सिर्फ साईकिल बच गया है उसे आप दे देती तो….. कहते कहते वो मायूस हो गयी । शाम का समय था – बरामदे पर माँ ने उसे चाय-पिलाई और उससे पुछा कि साईकिल के लिए रुपये दे दूँ या साईकिल बनवा दूँ । उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि माँ यूँ हाँ कर देगी । उसने कहा साईकिल ही बनवा दीजिए । चुँकि उसके घर में पहले से साईकिल खरीदकर रखने का मतलब चोरी का डर था इसलिए , मुझे बुलाकर माँ समझा दी की मंगलवार को नई साईकिल बनवाकर बुधवार को शादी के दिन ही उसके घर में सुबह दे आऊँ । खैरुन की माँ आश्वस्त होकर चली गयी ।
मैनें पता किया उस समय 1500 रुपये में अच्छी हीरो रायल साईकिल बन जाएगी । मंगलवार के रोज मै दोपहर को साईकिल की दुकान पैदल पहूँचा – क्योंकि आते समय नयी साईकिल में आना था ना । बनवाने से पहले वहाँ जब कीमत जोड़ा जा रहा था दुकानदार ने बताया – पीछे का कैरियर कैसा चाहिए , सीट कवर, और दुसरे समान कैसे चाहिए । मैनें कहा – अच्छा वाला । फिर मैनें उसे समझाने के लिए कहा कि साईकिल दान में देना है । दुकान का स्टाफ हँसने लगा । वह कहने लगा – दान के साईकिल के लिए इतनी कीमत का समान क्यों लगा रहे है । उसने बताया कि लोग दान मे देने के लिए तो सस्ती वाली साईकिल बिना कैरियर, सीट कवर के ले जाते है । जिसे दान मिलेगा वह अपना कैरियर लगाएगा । उस समय इस बिन माँगी राय सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया था । मेरा मन किया की बहूत सारा भाषण दे दूँ उसको – पर कुछ न कहा । मैने वहीं बैठकर साईकिल बनवाले लगा । टायर लगवाया नाईलन का, साईकिल की मैचिंग का गद्दे वाला सीट कवर और पहिये के अंदर का रंगीन फुल । जब साईकिल तैयार हो गयी तो मैनें उसके हैंडिल में झालर लगवाया । और सामने हैंडिल पर प्लास्टिक के गुलाब फुल । मेरी मन माफ़िक साईकिल तैयार हो गयी थी । नयी साईकिल की धंटी टनाटन बजती थी ।
बुधवार के दिन शादी रात को होनी थी । माँ मुझे दोपहर से ही पहले भेज दी – उसके घर सुबह साईकिल पहूँच जाएगी तो उसे तस्ल्ली हो जाएगी और कुछ अगर काम-वाम की जरूरत पड़े तो सहायता हो जाएगी ।
मैं नयी साईकिल उठाकर खाला के घर पहूँच गया । शादी का शामियाना देखकर मुझे आश्चर्य हुआ । एक छोटा तिरपाल टंगा था बस । आँगन की लिपाई सुबह में हुई होगी पर कहीं पानी पर फिसलते हुए पदचिन्ह तो कहीं पड़े हैं मुढ़ी के दाने । और कहीं लोट रहा है करीब आठ-दस महीने का नंगा बच्चा । उस गाँव में बुरके का प्रचलन नहीं था पर महिलाँए आँगन में सिर ढँककर काम कर रही थी । मैं नई साईकिल को सही जगह में रखने की मैं सोच ही रहा था । गाँव के नंग-धरंग बच्चे मेरे साईकिल के चारों ओर खड़े थे । एक बच्चा हैंडिल का झालर छुता तो दुसरा बच्चा उसे दुबारा छुते हूए पहले को फटकार लगाता ।
खैरुन की मां मेरे लिए क्या करे ना करे – परेशान सी हो गयी । क्या खाने को दे मुझे उसे समझ में नहीं आ रहा था । उसने चुनरी के कोने से गाँठ खोलकर पाँच रुपये का नोट निकालकर एक गाँव के बड़े लड़के को दी कि – जाकर मिठाई और नमकीन ले आए ।
लड़का थोड़ी देर के बाद लौटा – अब मेरे लिए स्टील का प्लेट तो खाला के घर का था यह तो पता नही पर उसके पास अभी चम्मच न था । बगलवाली से चम्मच माँग कर ले आयी । एक सस्ती लकड़ी का मेज और एक लकड़ी की कुर्सी भी मंगवा ली । मिठाई में छेना कम पर मैदा अधिक था – पर मुझे वह अच्छी लगी थी । उस नमकीन का स्वाद आजतक अंकल चिप्स में भी नहीं मिला । लेकिन उस नमकीन का नमक खाकर पता नहीं मुझे उसके प्रति कृतज्ञता भार बोध होने लगा । सोचा शादी का घर है कुछ करूँ – और कलुआनी बहन भी तो थी ।
मैं आँगन से बाहर खड़ा-खड़ा सब देख रहा था । वहाँ व्यवस्था में लगे किशोर लड़को से बात करने के बाद लगा कि रंगीन कागज के झालर काटने बाकी हैं । और क्या था – मैनें खैरुन की माँ से मांग ली रंगीन कागज । पर कैंची का पता नहीं – बगल वाले के यहाँ से एक मँगवायी तो पुरी तरह से भोथी । एक तो सस्ती वाली कागज फिर पानी काटने वाले उस कैंची से महीन झालर की डियाजन भी नहीं बनती थी । एकाध डिजाईन बनाने के बाद एक बेहतर कैंची आयी और हमनें फिर सारे झालर बनाये । लड़के कहीं से आटे की लेई बनाकर लाए और जहाँ- जहाँ बन पड़ा चिपकाते गये । अब लग रहा था – उस घर में शादी होने वाली है ।
करीब तीन बज गये थे और मुझे पैदल घर आना था । दोपहर को वहाँ भात खाने की व्यवस्था की न कोई संभावना थी और न ही कोई इच्छा भी हो रही थी । खैरुन की माँ को साईकिल की चाभी ठीक से रखने के लिए कहा और मैं वापस घर आ गया । शादी के लिए रात में रहना हमलोगों के लिए संभव न था और शायद रहने से खैरुन की माँ को हमलोगों के खाने के लिए कुछ अलग व्यवस्था करनी पड़ती ।
घर आकर खाना खाया और रात में माँ को सब कहानी सुनाया । उसे खुशी हूई ।
शादी के कई दिन के बाद खैरुन की माँ फिर से काम पर आने लगी । अब उसकी उम्र काम करने सी नहीं थी – माँ कहती की खाना खाकर वह बस थोड़ा चावल साफ कर दे वही काफी है । पर पता नहीं उसकी आदत वही रही । खोज-खोजकर काम निकाल लेती ।
एक दिन खैरुन की माँ बात कम रही थी । पुछा मां नें – उसकी तबीयत ठीक तो है , कलुआनी ठीक तो है । उसने कहा सब ठीक है । पर वह रोक न सकी खुद को । आँखों में आँसु भरकर बोल दी – साईकिल चोरी हो गयी है कलुआनी के ससुराल में । साईकिल चोरी – सुनकर मेरा तो हाथ-पैर जम गया । उसने बताया कुछ दिन पहले रेडियो – घड़ी चोरी हो गयी थी और आज रात साईकिल । हमलोगों ने पुछा कैसे । वह कह रही थी – उसका जमाई बता रहा था रात में कैसे हूई है पता नहीं ।
अब मुझे साईकिल की दुकान वाले आदमी की याद आ रही थी – “दान के साईकिल के लिए इतनी कीमत का समान क्यों लगा रहे है …… दान मे देने के लिए तो सस्ती वाली साईकिल बिना कैरियर, सीट कवर के ले जाते है । ”
माँ कलुआनी के ससुराल वालों को एकाध भला-बुरा सुनाकर उसे ढाँढस बँधायी । उसके हताश चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था टुट सी गयी लता माँ के सुखे टहनी से सहारा माँग रही हो ।
साईकिल चली गयी – पर खैरुन की माँ हमेशा की तरह उसी तरह रही । शायद ईश्वर उसकी सहनशीलता को देखकर ही उसे “खैरुन की माँ” बनाकर यहाँ भेजी । घर जाने से कोशिश करता हूँ एक बार मौका निकालकर उसे देख आऊँ । मुझे अचानक अपने घर पर देखकर खुशी से हमेशा उसके मुँह से निकलती है – “अल्लाह रे बेटा । कसे करे ओसलो ( कैसे आना हुआ ) ” ।
वह मुसलमान या “किस्मत की भिखारी” नहीं – मेरी खाला है।